Challenges and Issues that Obstruct Women Empowerment in India!

महिला सशक्तिकरण में अवरोधों पर विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है इन समस्याओं का शायद कोई अन्त ही नहीं है । देखा जाए तो लगभग  आधी जनसंख्या की पराधीनता मानव जाति की सबसे बडी समस्या है । उपेक्षा आम तौर पर कम महत्त्व की वस्तुओं, कार्यों अथवा प्रसंगों की होती है ।

परन्तु हमारे समाज का हाल यह है कि जो समाज का अभिन्न अंग है आज वही उपेक्षित है । यदि स्थिति को इसी रूप में रहने दिया गया तो मनुष्य समाज प्रेत-पिशाचों से भरा-घिरा दिखेगा, बेमौत मरेगा तथा इस विश्व वसुधा को भी विनाश के गर्त में धकेल देगा ।

हमारे समाज में नारी की माता, सहधार्मिणी, भगिनी और पुत्री का जो दीप्तिमान स्वरूप जीवन्त रहना चाहिए था, उसका लोप हो चला है । अब वह दासी बनकर रह गई है । उसकी उपयोगिता रमिणी के रूप में ही की जाती है । मांसलता को ही सराहा जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

आकर्षण और उत्तेजना के लिए ही लोग इर्द-गिर्द फिरते हैं । इस कुचक्र के कारण नारी अपंग्ड-असहाय जैसी स्थिति में फँस गई है । फलस्वरूप उसका प्रभाव क्षेत्र-व्यक्ति, परिवार और समाज भी रोग-शोक से घिरकर गई-गुजरी स्थिति में जा पहुँचा है ।

ग्रामीण परिवेश छोड़ आज शिक्षित समाज में भी लड़का जन्मने पर बधाइयाँ बजती हैं और लड़की जन्मने पर सभी के मूँह लटक जाते हैं । दोनों के पालन-पोषण, शिक्षा-सम्मान आदि में भी भारी अन्तर रहता है ।

विवाह तो और भी उलझी समस्या है । लड़की के पिता को दरवाजे-दरवाजे ठोकरें खानी पड़ती हैं । यदि सुन्दरता में कमी आई या दहेज के लिए मुँह माँगी रकम न जुटाई जा सकी तो विवाह करना अति कठिन हो जाता है ।

लड़की अभिनेत्रियों जैसी सुन्दर हो और पिता के घर से बड़ी सम्पदा साथ लेकर आए तो ही उसे सुयोग्य वर पाने और अच्छे घरों में प्रवेश करने का अवसर मिलता है । गरीब घरों की, सामान्य रंग-रूप की कन्या के पिता हो तो हाथ पीले करने का अवसर प्राप्त करना ही कठिन हो जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

यह सब प्रचलन बताते हैं कि हमारे समाज में नारी का कितना अवमूल्यन रहा है । वह दिन भर कम महत्त्व के कामों में पिसती रहने के कारण न शिक्षा प्राप्त कर सकती है, न स्वावलम्बन के लिए योग्यता अर्जित कर सकती है । उपेक्षित तिरस्कृत रहकर अपना शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य गँवाती रहती है ।

बच्चों के बोझ से निरन्तर लदती रहने के कारण वह प्रौढ़ परिपक्व होने से पहले बुढ़ापे का शिकार हो जाती है । ऐसी दशा में उसका गई-गुजरी स्थिति में पड़े रहना स्वाभाविक ही है । घर के छोटे दायरे में जिन्दगी गुजारने के कारण उसे सामाजिक सम्पर्क का, अनुभव सम्पादन का अवसर ही कहाँ मिल पाता है । ऐसे में स्वावलम्बन और प्रगति का द्वार कहीं खुल पाएगा ?

जन जातियों, अनुसूचित जातियों को पिछड़ी समझा जाता है और उनके लिए विशेष सुविधाओं का प्रबन्ध किया जाता है । पर कुछ शिक्षित सम्पन्न परिवार की महिलाओं को अपवाद रूप छोड़ कर प्राय: समस्त नारी समाज को उसी स्थिति में जीवन-यापन करना पड़ता है ।

जिसे एक शब्द में दयनीय ही कह सकते हैं । इस पर भी आश्चर्य तो यह है कि न तो पुरुष वर्ग अपने सहचार वर्ग को उठाने की आवश्यकता अनुभव करता है और नारी मानवोचित जीवन-यापन का अधिकार पाने के लिए साहस जुटा पाती है । नारी से सम्बन्धित समस्याएँ अनन्त हैं ।

ADVERTISEMENTS:

सब पर विचार करना तो सम्भव नहीं परन्तु हम उनसे सम्बन्धित सभी महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर विचार करने का प्रयत्न अवश्य कर सकते हैं । कुछ प्रमुख समस्याएं इस प्रकार है जिन्हें विहित किया है-आनुपातिक संघर्ष, अशिक्षा, निर्धनता, यौन शौषण, कुपोषण, सामाजिक विवशता, दहेज, हिंसा, पक्षपात, अन्धविश्वास, जाति प्रथा, जागरूकता का अभाव आदि ।

1795 को भारत में पहला कानून पारित कराया । इसके माध्यम से बालिका शिशु हत्या के प्रति ब्रिटिश सरकार ने बालिका शिशु हत्या को अपराध मानते हुए कठोर सजा का प्रावधान रखा । इसके बाद 1804 में एक कानून बना । 1976 में चिकित्सकीय गर्भपात को वैधानिक ठहराया गया था ।

इसके पीछे उद्देश्य स्त्रियों को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करना था परन्तु आज भ्रूण परीक्षण के माध्यम से बालिका भ्रूण का बड़ी आसानी से पता लगाकर उसे अवांछित वस्तु की तरह नष्ट करने की घिनौनी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है ।

प्रसव पूर्व आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों, खासकर मादा भ्रूणों की पहचान कर उनका गर्भपात करने के दुरुपयोग को समाप्त करने के इरादे से प्रसव पूर्व नैदानिक तकनीकी अधिनियम 1994 संसद के मानसून सत्र-1994 में पारित किया गया । इस अधिनियम में खास परिस्थितियों में ही पंजीकृत संस्थाओं में ही किसी महिला पर नैदानिक तकनीक का प्रयोग करने की अनुज्ञा दी गई इस कानून का उल्लंघन करने पर दंड का भी प्रावधान है ।

परन्तु महज कानून बना देने से ही समस्या का हल नहीं हो सकता । इस समस्या की जड़ें बहुत गहरी हैं । पंजाब में अकाल तख्त ने भ्रूण के अपराधियों को तनखैया घोषित करने का फैसला किया । परन्तु आज इस मामले में पंजाब की ही स्थिति सबसे दयनीय है । वहाँ निरन्तर महिला-पुरुष अनुपात घटता जा रहा है ।

आंकड़ों से ज्ञात होता है कि वर्ष 1978 से 1983 के मध्य लिंग निर्धारण पद्धति के द्वारा तकरीबन 60,000 बालिका भ्रूणों को गर्भ में ही समाप्त कर दिया गया । इन आंकड़ों से प्रथम दृष्टया ही हम इस समस्या की विकरालता का अन्दाजा लगा सकते हैं । महिला विकास में दूसरी विकराल समस्या अशिक्षा है । यह वह दानव है जिसका अन्त किए बिना विकास का स्वप्न देखना भी बेईमानी है । शिक्षा से रहित समाज स्वयं में ही सबसे बड़ा अन्धकार है ।

यह सत्य है कि- ”शिक्षा मानव का बन्धनों से मुक्त करती है, और आज इस युग में लोकतन्त्र की, भावना का आधार भी है । जन्म तथा अन्य कारणों से उत्पन्न जाति एवं वर्गगत् विषमताओं को दूर करते हुए मनुष्य को इन सबसे ऊपर उठाती है ।”

शिक्षा का स्तर स्वतन्त्रता पूर्व तो बहुत अन्धविश्वासों के चंगुल मैं उलझा था (जैसे लड़की पढ़ी-लिखी है तो विधवा हो जाएगी) परन्तु आज 30 वर्षों बाद भी 1981 में महिला साक्षरता दर 24.8 प्रतिशत थी, जबकि 1951 में यह दर 7.9 प्रतिशत, 1961 में 13 प्रतिशत, 1971 में यह दर 39.3 प्रतिशत थी जो बढ्‌कर 2001 में 54.16 प्रतिशत हो गई है ।

जो पुरुष साक्षरता-दर 75.85 प्रतिशत से 21.69 प्रतिशत कम है । इसमें भी बीमारू, ग्रामीण, शहरी एवं प्रादेशिक असमानताएं विद्यमान हैं । बीमारू राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश) राज्यों में महिला साक्षरता दर औसत से भी कम है । साक्षरता दर में (2001 में) प्रथम 90.92 प्रतिशत के साथ केरल, मिजोरम दूसरा 88.49 प्रतिशत तथा बिहार 47.53 प्रतिशत पूरे भारत में निम्नतम स्थान पर है । जहाँ महिला साक्षरता दर (33.57) है ।

जहाँ तक उच्च शिक्षा का सवाल है तो इसमें क्षेत्रीय भिन्नताओं के बाबजूद महाविद्यालय शिक्षा काफी हद तक शहरी उच्च एवं मध्यम वर्गीय परिवारों तक सीमित है फिर भी 17-23 वर्षीय आयु-वर्ग में उच्च शिक्षा में लड़कियों का प्रतिशत बहुत ही कम 3 प्रतिशत है । अभी भी कला संकाय सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र है । सूचना विज्ञान तथा कम्प्यूटर में 2 प्रतिशत महिलाएँ ही भाग लेने में सक्षम है ।

लड़कियाँ पैदा होने के बाद उनको शिक्षा देने के बजाय घरेलू कामकाज में निपुण होने पर अधिक बल दिया जाता है । जिसके तहत लड़कियों की सम्पूर्ण जिन्दगी बर्तन साफ करने, कपड़े धोने, रोटी पकाने; झाड लगाने आदि कामों के इर्द-गिर्द गुजर जाती है ।

यही कारण है कि 25 प्रतिशत लडकियाँ घर के चूल्हा चौका में ही सिमटकर रह जाती हैं । शिक्षा प्राप्त न करने से लडकियाँ अपना विकास, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, कल्पनाशीलता आदि गुणों से वंचित रही जाती हैं । इन सब कारणों से शिक्षा की ज्योति इन बालिकाओं से दूर रह जाती है । प्राथमिक पाठशालाओं में दाखिला लेने वाली लड़कियों की संख्या में लगभग 10 प्रतिशत वृद्धि हुई है । उसके बावजूद एक तिहाई लड़कियाँ स्कूल नहीं जाती हैं ।

मानव संसाधन विकास मन्त्रालय द्वारा सर्व शिक्षा अभियान के तहत ‘स्कूल चलो अभियान’ छेड़ा गया । इसके परिणाम क्या निकले ? यह तो सर्वविदित है प्राइमरी स्कूल में नाम लिखाने वाली बालिकाओं की संख्या मात्र राष्ट्रीय औसत का 88 प्रतिशत थी । जिसमें भी 50 प्रतिशत लड़कियाँ बीच में ही स्कूल छोड़ती पाई गईं ।

शिक्षा की इस बेहाल दशा पर अनेकों कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं । सार्क ने भी ‘बालिका शिक्षा दशक’ मनाया परन्तु कोई बदलाव के चिह्न दृष्टिगोचर नहीं हुए । विकास की गति कछुआ चाल के समान है । जिसके चलते समस्या निदान कठिन है ।

महिला विकास की एक प्रमुख समस्या उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी हैं । एक तो महिलाएँ इसके प्रति जागरूक ही नहीं हैं, दूसरी ओर उनके साथ पक्षपात के चलते उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जातीं ।

बालक के बीमार होने पर उसे उपयुक्त इलाज दिया जाता है, परन्तु बालिका को घरेलू उपाय ही देकर छोड़ दिया जाता है । इस सब से यदि निजात मिल भी जाए तो गर्भावस्था व प्रसव के समय होने वाली लापरवाहियाँ व इलाज की कमी उन्हें असमय काल का ग्रास बना देती है ।

दुनिया में गरीबी की रेखा से नीचे जीने वाले लोगों में बहुत बड़ी संख्या बच्चों व महिलाओं की है । यहाँ अभी भी पाँच वर्ष से कम उस के बच्चों में कुपोषण की संख्या करोड़ों में बनी हुई है । लगभग एक लाख बच्चे कुपोषण के कारण प्रतिमाह मर जाते हैं । भारत में पैदा हुए एक तिहाई बच्चों का वजन सामान्य से कम होता है । जिनमें से दो तिहाई बालिका शिशु हैं ।

विकासशील देशों में संक्रामक रोगों के कारण स्वास्थ्य की स्थिति बेहद खराब है । दक्षिण एशिया में प्रतिवर्ष 50 लाख बच्चों में 30 लाख कुपोषण के कारण मरते हैं । दक्षिण अफ्रीका में प्रति घंटे चार बच्चे अथवा प्रतिदिन 96 बच्चे कुपोषण के कारण मरते हैं । अधिकांशत: बच्चे निमोनिया, डायरिया, खसरा, टिटनेस और कुकर खाँसी के शिकार हो जाते हैं ।

भारत का बालिका शिशु की मौत में 45वां स्थान है । वैसे भारत में शिशु मृत्यु दर 129 थी, जो अब 79 रह गई है । भारत में ऊंची मृत्यु दर का कारण गरीबी, गन्दगी भरा वातावरण और मुख्यतः बच्चे पैदा करने की अवधि में माँ का कुपोषित होना है । जब जन्म देने वाली माँ ही कुपोषण के कारण एनीमिया, सूखा आदि रोगों से जूझती रहेगी तो स्वस्थ शिशु की आशा कैसे की जा सकती है ।

महिलाओं को भोजन देने सम्बन्धी उपेक्षाओं और गरीबी के कारण गन्दगी व जहरीले वातावरण में स्वस्थ सन्तान कैसे जन्म ले सकती है । 50 करोड़ महिलाएँ व बच्चे गरीबी के कारण पर्याप्त भोजन नहीं पाते और भूखे ही सो जाते हैं । वे खराब स्वास्थ्य के कारण पीड़ित हैं और शारीरिक अस्वस्थता तथा शरीर में प्रतिरोधिकता की कमी के कारण संक्रामक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं । और उनका मानसिक विकास भी मन्द हो जाता है ।

विश्व में 2.6 करोड़ बच्चे आयोडीन की कमी के कारण मानसिक विकास की कमी से पीड़ित हैं । भारत में 6.8 लाख बच्चे आयोडीन की कमी के कारण मानसिक विकास की कमी से पीड़ित हैं । बालिकाओं की स्थिति तो और भी दयनीय है । पाँच वर्ष से कम उम्र की 40 प्रतिशत बच्चियाँ प्रोटीन, कैलोरी की न्यूनता के कारण कुपोषण की शिकार हैं ।

विश्व में 17 प्रतिशत की तुलना में भारत में 33 प्रतिशत बच्चे कम वजन के पैदा होते हैं । कुपोषण और अज्ञानता के कारण प्रत्येक वर्ष 25 बच्चे अपनी दृष्टि खो देते हैं । भारत में 15 लाख बच्चे विटामिन ‘ए’ की कमी से पीड़ित हैं ।

यही हाल ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों का है तो सुदूर आदिवासी और झोपड़ी, स्लम बस्तियों की स्थिति का आकलन तो हम सहरा ही कर सकते हैं जब महिलाओं की ही स्थिति समाज में इतनी दयनीय हो तो एक स्वस्थ समाज की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं ।

नारी ही परिवार का आधार होती है और नारी ही कुपोषित, बीमार, अस्वस्थ है तो कौन सन्तान का पालन करेगा और कौन घर गृहस्थी की गाडी को चला पाएगा । कहा भी गया है- ”किसी सभ्यता का मूल्यांकन इस बात से किया जा सकता है कि वह अपनी महिलाओं के साथ कैसे बर्ताव करता है । यदि वह वास्तव में सभ्य है तो महिलाओं को ऐसे निर्णय के अवसर अवश्य दिए जाएँ जो उनके तथा उनके परिवार के लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकें ।”

यूँ तो हमारे संविधान में महिलाओं के हितार्थ ढेर सारे प्रावधान हैं परन्तु फिर भी महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा व अपराधों में कोई कमी नहीं दिखाई देती । उनके खिलाफ हिंसक घटनाएँ निरन्तर बढ़ रही हैं । जिसमें बलात्कार, दहेज-हत्या, बाल यौन-शोषण, पति द्वारा मार-पीट तथा परिवार द्वारा ही किया गया अत्याचार शामिल है ।

जब तक इस पर कोई कार्यवाही नहीं होगी विकास कैसे होगा । महिला के खिलाफ हिंसक वारदात करने वाले विरले व्यक्ति को ही सजा मिलती है अन्यथा सबूतों और सही पैरवी के अभाव में अभियुक्त बेदाग छूट जाता है । कुछ ही मामले रिकॉर्ड में दर्ज हो पाते हैं जो दर्ज नहीं हो पाते उनकी संख्या पता नहीं कितनी होगी ।

आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ हिंसक घटनाएँ निरन्तर बढ रही हैं । 1990 में बलात्कार के कुल 10068 मामले दर्ज हुए थे जिनकी संख्या 1997 मैं बढ्‌कर 15336 हो गई । प्रतिदिन 56 से अधिक महिलाएँ किसी-न-किसी तरह यौन-हिंसा का शिकार होती है ।

अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार प्रत्येक 47 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार, प्रत्येक 44 मिनट पर एक महिला का अपहरण और 36 मिनट पर एक महिला की इज्जत के साथ छेडखानी की जाती है । जमीनी सच्चाई यह है कि एक महिला के लिए उसकी अस्मिता से बढकर अन्य कोई चीज नहीं है । यदि उसकी अस्मिता ही लुट गई तो समझिए उसका सब कुछ लुट गया ।

यहाँ तक कि कुछ महिलाएँ इससे आहत होकर आत्महत्या तक कर लेती हैं । यदि किसी तरह साहस जुटाकर जीती भी हैं तो उसे समाज में दर-दर तिरस्कार का सामना करना पड़ता है । वह चलती फिरती लाश के समान हो जाती है । कभी-कभी मृत्यु को उस जीवन से अच्छा समझ लेती हैं यदि ऐसे में वह अपनी जीवन लीला समाप्त कर ले तो क्या आश्चर्य ?

और दूसरी तरफ उसको असीमित मानसिक व शारीरिक कष्ट देने वाला व्यक्ति सीना तानकर बेखौफ घूमता है । जब तक दोषी व्यक्ति येन-केन प्रकारेण दंड के घेरे में आता है तब तक वह दूसरी महिलाओं के खिलाफ हिंसक वारदातें करने से नहीं चूकता ।

कुछ अत्यन्त विकृत मानसिकता वाले लोग मासूम बालिकाओं को अपना शिकार बनाते हैं । क्योंकि वह खुलकर यह बात किसी को नहीं बता पातीं । इस प्रकार के अपराधियों का शिकार 8 से 17 साल तक की बच्चियाँ होती हैं ।

सर्वेक्षण से पता चलता है कि 60 प्रतिशत महिलाएँ व बच्चियाँ कभी-न-कभी किसी-न-किसी प्रकार के यौन शोषण का शिकार अवश्य होती हैं । इस उम्र की बच्चियों को छोटे-मोटे लालच या ऊँचे-ऊँचे ख्वाब दिखाकर बहलाना बेहद आसान होता है । इसके अतिरिक्त उन्हें अनेक प्रकार की धमकियाँ दी जाती हैं ।

जिससे सहमकर ऐसी बच्चियाँ अपने जख्मों को अन्दर ही अन्दर पनपने देती है जो आगे चलकर नासूर बन जाती हैं । मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह बात स्पष्ट हुई है कि बच्चों के जीवन में होने वाली इस तरह की दुर्घटना उसके भविष्य पर गहरा असर डालती है ।

पढाई में उनका मन नहीं लगता स्कूल जाने में वह कुंठा महसूस करती हैं । उनमें अवसाद रोग व आत्महत्या की प्रवृत्ति पाई जाती है । वह हमेशा असुरक्षा की भावना से घिरी रहती हैं । वह जिन्दगी भर बुरे सपनों से घिरकर कुंठित हो जाती हैं ।

मनोवैज्ञानिक का मानना है कि ऐसे बच्चे इन बातों को कभी भूल नहीं पाते उनका व्यवहार दिनोदिन अस्वाभाविक हो जाता है । कच्ची मिट्‌टी-सी मानसिकता वाली अबोध बच्चियों पर यह घटना आजीवन अमिट छाप छोड़ देती है । इन सब समस्याओं के अतिरिक्त भारत में प्रचलित जाति प्रथा यूँ तो मानवता के विकास में बाधक हैं परन्तु स्त्रियों के लिए तो वह बेडियों के समान है ।

पिछडों और दलितों की तरह ही भारतीय समाज में स्त्रियों का भी शोषण होता रहा है । भले ही धर्म-शास्त्रों में ऐतिहासिक दस्तावेजों में उनके लिए अनेक आदरसूचक कथनों का प्रयोग मिलता हो, पर यह सच है कि समाज में उसकी नागरिकता दोयम दर्जे की ही है ।

गांधीजी ने स्त्रियों की इस दारुण स्थिति को अच्छी तरह से पहचाना था । वह यह मानते थे कि स्त्री चाहे जिस वर्ग या वर्ण की हो, उसका दोहन और शोषण अनेक रूपों में होता रहा है । वह भारतीय समाज में जिन शोषित-पीडित लोगों को विकास के लिए जिस विशेष अवसर की बात करते थे, उनकी सूची में दलितों और पिछड़ों के साथ स्त्रियों को भी रखते थे ।

अनेक अवसरों पर, अपने सम्पादकीय टिप्पणियों में और यहाँ तक कि भाषणों में इसे उन्होंने स्पष्ट किया था । अभिप्राय यह है कि स्त्री चाहे दलित हो या अदलित उनकी दृष्टि में सभी दलित ही थीं । यह बात दीगर है कि दलित या अवर्ण स्त्रियों की तुलना में सवर्ण स्त्रियों की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी ।

पर सामाजिक और धार्मिक ठेकेदारों ने सवर्ण स्त्रियों के लिए भी सीमा-रेखा खींच दी थी । जिससे वे बाहर नहीं जा सकती थी । इसके विपरीत अवर्ण स्त्रियों को बाह्य स्वतन्त्रता अधिक थी । वे स्वतन्त्रतापूर्वक कृषि कार्य, उद्योग आदि कर सकती थीं ।

आज भी सवर्णों द्वारा दलित महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को हम देख सकते हैं । दलित पुरुष की किसी भी गलती या नाराजगी होने पर उसकी घर की स्त्रियों को निर्वस्त्र घुमाना, हिंसा, शोषण आदि की घटना हम समाचार-पत्रों में पढ़ते ही रहते हैं ।

संविधान के दायरे से उसे कुछ मुक्ति अवश्य मिल गई है । वह जड़ परम्परा और विभिन्न प्रतिबन्धों से अभी भी मुक्त नहीं हो पाई है । वह पुरुष की अनुमति के बिना अभी भी घर से बाहर नहीं जा सकती । आज भी उसकी जाति पुरुष की ही जाति से पहचानी जाती है । जिन स्त्रियों को आज हम कार्यस्थल पर आजाद घूमती हुई देखते हैं ।

उनकी संख्या गिनती में हैं । आज भी स्वर्ण हो या दलित स्त्री को वह सम्मान नहीं मिल पा रहा जिसकी वह अधिकारिणी हैं आज भी उसके प्रति जातिगत, धर्मगत अत्याचार हम देख सकते हैं । परम्परा, प्रतिबन्ध आज भी उस पर ही हावी है ।

रूढ़िवादी बाधाओं में बाल विवाह सबसे बड़ा अवरोध है । महिला के विकास की बड़ी बाधा जिसमें सुधार लाने के प्रयत्न स्वतन्त्रता के पूर्व से आज तक निरन्तर किए जा रहे हैं, परन्तु आज भी इस समस्या से निजात पाना मुश्किल कार्य है ।

बाल विवाह की समस्या रूढ़िवादी विचारधारा तथा सामाजिक एवं आर्थिक कारणों से हैं । इसके पीछे आर्थिक सोच यह है कि लड़की पराया धन है । विवाह के बाद लड़की पिता के घर पर अधिकार छोड़ देती है और सम्पत्ति का बँटवारा सिर्फ लडकों में होता है । जल्दी विवाह करने से माता-पिता बच्चों की जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं ।

कितने भी कानून बन जाएँ पर सामाजिक सोच में बदलाव न आने के कारण आज भी निरन्तर बाल विवाह हो रहे हैं । राजस्थान में तो बालिकाओं की स्थिति इस कारण अत्यन्त दयनीय है । इतनी समस्याओं के साथ नारी विकास कैसे कर सकती है ।

धार्मिक रूढ़िवादिता के अतिरिक्त हमारे समाज में कुछ घातक अन्धविश्वास फैले हुए हैं । ये अन्धविश्वास यद्यपि सम्पूर्ण समाज की प्रगति में बाधक हैं परन्तु स्त्रियों के लिए तो अत्यधिक घातक हैं । क्योंकि किसी भी बुराई या बीमारी का कमजोर पक्ष ही शिकार बनता है ।

अन्धविश्वासों के चंगुल में फंसी सीधी-साधी नारियों को रूढ़ियों के नाम पर डराया-धमकाया जाता है । कोई जगह उसे डायन के नाम पर पीट-पीटकर मार डाल दिया जाता है । अभी कुछ ही दिन पहले असम के कोकरासार जिले में तीन महिलाओं को डायन बताकर बुरी तरह पीटा गया ।

जादू-टोने के सन्दर्भ में प्रायः महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता है बिहार के कई इलाकों में पुरानी रूढ़ियों व अन्धविश्वास आज भी प्रचलित है । हमारे देश में आज भी देवदासी प्रथा का अन्धानुकरण करने वाले माता-पिता अपनी पुत्रियां को अप्रत्यक्ष रूप से यौन-शौषण की आग में झोंक देते हैं । तान्त्रिकों द्वारा अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अनेक प्रकार के भ्रम फैलाते है तथा प्रायः स्त्रियाँ ही इन तन्त्र कर्मों का शिकार बनती हैं ।

इस प्रकार हमने महिलाओं की समस्याओं से सम्बन्धित पहलुओं को विवेचन करने का प्रयास किया, जौ कि महिलाओं के सशक्तिकरण के मार्ग में बाधा या अवरोध है । यद्यपि समस्याएँ अनेक तथा जटिल हैं परन्तु जहाँ समस्या है वहाँ उसका समाधान अवश्य होता है । इसी आशा के साथ आज सशक्तिकरण की दिशा में अग्रसर हैं ।