Speech on Women Empowerment in India!

मानव स्त्री एवं पुरुष का समग्र रूप है । सम्पूर्णता किसी एक में नहीं बल्कि दोनों के मिलन में है । दोनों के सहयोग से ही सामान्य जीवन का क्रिया-कलाप चलता है । मानव के कर्तव्य एवं अधिकार दोनों के उत्तरदायित्व पर निर्भर है किसी एक पर नहीं ।

यदि दोनों के बीच असहयोग या व्यवधान उत्पन्न हो जाए तो समझना चाहिए कि प्रगति तो दूर जीवन निर्वाह का साधारण कार्यक्रम भी इसी उचित ढंग से सम्पन्न नहीं हो सकता । वंश-परम्परा चलाने और पीढ़ी-दर-पीढ़ी मनुष्य का अस्तित्व बनाए रखने में नारी का 99 प्रतिशत योगदान है ।

नर तो महज अर्थव्यवस्था सँभालने व सुरक्षा का सीमित दायित्व संभालता है । नारी ही परिवार का सृजन विकास एवं नियन्त्रण करती है । बिना नारी का समुचित सहयोग पाए न तो परिवार का सृजन कर सकता है । और न ही निजी जीवन को सुव्यवस्थित रख सकता है ।

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समाज निर्माण में नारी का अमूल्य योगदान तो सर्वविदित है ही, इसे कोई नकार नहीं सकता । इसका स्पष्ट प्रमाण भारत के दीर्घकालीन इतिहास में दृष्टिगत होता है । इसके अतिरिक्त अन्य देशों के इतिहास में भी नारी के प्रति प्रशंसा और श्रद्धा का भाव पाया जाता है ।

मानव जाति की उत्पत्ति के इतिहास का दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि मानव सृजन प्रक्रिया में भाषा, ज्ञान, कृषि, पशुपालन जैसे कार्यों का आरम्भ नारी ने किया पुरुषों ने किया पुरुष ने जो मात्र नारी के प्रयासों में सहायता भर की है ।

वस्त्र-निर्माण का कौशल उसी का है, अन्यथा आदि काल पशुओं के चमड़े व पत्तों से ही मनुष्य कमर से बाँधे फिरता था । शिकार भर मार लाता था, उसे पकाने के लिए जिस अग्नि की आवश्यकता पड़ती थी उसे घर्षण क्रिया द्वारा उत्पन्न करने में नारी ही सफलता का श्रेय प्राप्त कर सकी ।

प्रकृति अनुशासन को पग-पग पर तोड़ने, आपस में लड़ने-झगड़ने और आखेट में आहत होने के दुष्परिणाम व दंड से नारी ने ही पुरुष की रक्षा की । इस कबीलियाई सभ्यताओं के उपरान्त वैदिक साहित्य के प्रमाण भी बताते हैं कि आदिती, लोपमुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, विद्योत्मा, अपाला, गान्धारी, सीता, उर्मिला, सावित्री, भाद्री आदि ने असाधारण प्रतिभाशाली महिलाओं की शिक्षा का स्तर उस युग के शिक्षित पुरुषों के समकक्ष था ।

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उस युग में महिलाओं के साथ बेहतर बर्ताव किया जाता था और उन्हें अधिक अधिकार प्राप्त थें । मनीषी याज्ञवलक्य ने व्यस्क महिलाओं को अपना जीवन साथी चुनने की स्वतन्त्रता दी थी । गार्गी ने तो अपनी शर्तों पर ही एक मनीषी को अपने पति के रूप में वरण किया ।

मध्यकाल तक आते-आते नारी पतन की स्थिति का शिकार हो गई । यद्यपि उसकी स्थिति मध्यकाल में अत्यन्त शोचनीय थी फिर भी रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, नूरजहाँ, रजिया सुल्ताना, हमीदा बानो बेगम, जहाँआरा, बेगम हजरत महल ने अपना प्रभाव छोड़ने में सफलता पाई ।

उस समय पुरुष वर्चस्व चरम पर था तथा सर्वत्र अन्याय का राज व्याप्त था ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी नारी ने अपने शौर्य का प्रदर्शन किया । आधुनिक काल में भी उसने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया । अनेक उच्च मेधावी महिलाओं के साथ-साथ सामान्य महिलाओं ने भी भाग लिया और आन्दोलन की अगली कतार में रही ।

स्वतन्त्रता आन्दोलन के उपरान्त राष्ट्र के निर्माण में भी उनका योगदान अमूल्य रहा । श्रीमती इन्दिरा गांधी, सरोजनी नायडू, विजय लक्ष्मी पंडित, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि ने अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी योग्यता का परचम लहराया ।

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इतने महत्त्वपूर्ण योगदान के उपरान्त आज भी वह निरन्तर संघर्ष कर रही है । आज कई स्थानों पर उसे मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाता है । स्त्री-पुरुष अनुपात प्रति 1000 लड़के पर 927 लडकी के स्तर तक पहुँच गया है । आज भी महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 56.26 प्रतिशत है ।

वे विभिन्न प्रकार के अपराधों, यौन शोषण, बलात्कार, मादा भ्रूण-हत्या, बालिका यौन शोषण आदि से घिरी हैं । आज भी पुरुष समाज द्वारा उसे प्रताडित किया जा रहा है । समस्याएँ होती हैं तो समाधान भी अवश्य होता है ।

भारतीय इतिहास के इस दौर के अनुभवों से पश्चिमी शिक्षा और उदार आदर्शों की बढ़ती जानकारी महिलाओं के भेदभाव के सभी रूपों को समाप्त करने की जरूरत पर अन्तर्राष्ट्रीय ध्यान से देश के भीतर सामाजिक चेतना में वृद्धि हुई ।

इक्कीसवीं शताब्दी के आगमन ने देश के नियोजित विकास को रेखांकित किया है । इस अवधि में महिला केन्द्रीय योजनाएँ आई और महिलाओं के विकास सम्बन्धी मुद्दों को अधिक गम्भीरतापूर्वक लिया गया । पिछले दो दशकों में विशेषकर नौंवीं और दसवीं पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान प्रयासों को तीव्र किया गया ओर राष्ट्र के विकास में महिला अधिकारिता को विशिष्ट लक्ष्य के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है ।

बालिका-महिलाओं की शिक्षा हेतु योजनाओं के अलावा स्वास्थ्य एवं पोषण योजनाएँ, महिलाओं को व्यवसायिक प्रशिक्षण और रोजगार योजनाएँ, मजदूरी तथा स्वरोजगार सहायता योजनाएँ, गरीब महिलाओं के समूल की आर्थिक गतिविधियों के लिए लघु ऋण जैसे निवेश कार्य प्रारम्भ किए गए हैं ।

अधिकारिता के माध्यम से महिलाओं के विकास का ताजा उदाहरण है । महिलाओं को संगठित करने की यह प्रक्रिया असंगठित महिलाओं की सामाजिक लामबन्दी को पूर्वापेक्षित तथा साथ ही आर्थिक एवं राजनीतिक आधिकारिता का पूरक माना जाता है ।

महिला संगठनों की गतिविधियों तथा दबाव के द्वारा न केवल उन्हें आर्थिक और सामाजिक लाभ प्राप्त हुए हैं । बल्कि बड़े पैमाने पर महिलाओं की आधिकारिता तथा लिंग समानता की दिशा में बढ़ने तथा उनकी स्थिति बेहतर करने पर केन्द्रित राष्ट्रीय विधानों और नीतियों को आकार प्रदान किया है । आवश्यकता इस बात की है प्रयास क्षणिक नहीं होने चाहिए । सिर्फ कानूनी व संवैधानिक प्रयासों के अतिरिक्त पुरुष को महिला के विकास को अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझनी चाहिए ।

महिला जागरण का लक्ष्य सिर्फ नारी से छीने गए मानवीय अधिकार ही उसे वापस करना नहीं होना चाहिए अपितु उसे जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रगति हेतु प्रोत्साहित करना होना चाहिए । पददलित व प्रताड़ित नारी को जिस दिन न्याय मिल जाएगा । उसे पूर्ण मनुष्य मान लिया जाएगा । उसी दिन प्रगति का द्वार खुलेगा ।

नारी ने तो हमेशा से सहना सीखा है । इस पुरुष व नारी के मध्य प्रतियोगिता का रूप नहीं देना चाहिए अपितु नारी के सहयोग की कामना करनी चाहिए । सताए जाने पर नारी रो सकती है पर अपनों के प्रति हिंसा पर उतारू कभी नहीं हो सकती ।

उसमें चंडी का तत्त्व है तो बहुत उसे महिषासुर मर्दिनी और आसुर निकन्दिनी महाशक्ति के रूप में ब्रज की तरह टूटती भी देखी जा सकती है । पर उसका यह रौद्र रूप मात्र दुष्टता के विरोध में ही उभरता है । अपनों के लिए वह जन्म से लेकर मरण तक स्नेह, भाव भरी भावनाएँ ही प्रदर्शित करती हैं । विकसित नारी अपने लिए अपने परिवार व समाज के लिए और देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए समूची मानवता व विश्व शान्ति के लिए वरदान ही सिद्ध होती आई है ।

नारी का उत्कर्ष सिर्फ उसका ही उत्कर्ष नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज व मानव जाति का उत्कर्ष है । उसमें उज्जल भविष्य की इतनी अधिक सम्भावनाएँ सन्निहित है कि आज तो उसकी कल्पना कर सकना ही कठिन है । उसका विकास बालक के साथ ही साथ सम्पूर्ण परिवार का विकास है ।

नारी का भी दायित्व बनता है कि वह चरित्र-निष्ठा, सज्जनता, शिष्टता, उदारता, नियमितता, कर्तव्य परायणता श्रमशीलता, सादगी, नैतिकता जैसे गुणों को अपने व्यक्तित्व में समाहित करें तथा पुरुष के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर समाज के विकास में योगदान करें । यदि ऐसा हो तो कोई भी देश सर्वतोन्मुखी प्रगति करेगा तथा शीघ्र ही एक आदर्श समाज का निर्माण होगा ।

इन सदगुणों से युक्त व जाग्रत नारी आने वाले दिनों में प्रगति के सभी क्षेत्रों में अपनी समुचित भूमिका प्रस्तुत करने में तत्पर दिखाई देगी । देश की आर्थिक उन्नति में उनका बढ़ा-चढ़ा योगदान होगा । कुटीर उद्योगों का संचालन प्रायः उसी के हाथ में होगा ।

पुरुष घर के बाहर सम्भव हो सकने वाले अपेक्षाकृत अधिक आंकडे परिश्रम के काम अपने जिम्मे रखेंगे और गृहस्थावस्था, शिशुपालन के साथ-साथ नारी कुटीर उद्योगों को सँभाल लेगी । घर में रहते हुए ऐसे कार्य करना उनके लिए सरल भी होगा और उपयोगी भी ।

सहकारी समितियों द्वारा कच्चा माल देने और बने माल को खरीदकर उपयोग का उत्तरदायित्व लेने पर छोटे-बड़े अनेक गृह उद्योग पनपते हुए दिखाई देंगे । देश की सम्पन्नता की निश्चित रूप से अभिवृद्धि होगी और उसकी सूत्रधार होगा नारी ।

राजनीति के क्षेत्र में जो भ्रष्टाचार, अन्याय, आतंक, चल रहा है यदि देखा जाए तो उसका बहुत सहज उपाय है शासन संस्थाओं में नारी को चुनकर भेजना । उनकी जन्मजात सहृदयता उदारता का समावेश जब राजनीति में होगा, तो आज छल-दम्भ उसमें से निकालकर ही रहेंगे और अन्याय का अन्त भी निश्चित होगा ।

ग्राम पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण देने का सुखद परिणाम आज हमारे सामने है ही । आज यह साबित हो ही गया है कि सत्ता किसी वर्ग विशेष की बपौती नहीं है । आबादी में उसके प्रतिशत को देखें तो यदि वह अपनी पे अड़ जाए तो पूरी शासन सत्ता अपने हाथ में ले सकती है ।

प्रजातन्त्र विधान भी यही कहता है । इन परिस्थितियों में यह उचित ही होगा कि सत्ता संचालन में उसकी स्वाभाविक उदारता और सज्जनता का समावेश होने दिया जाए और उसका पूरा लाभ समूचे जनमानस को मिलने दिया जाए । साहित्य कला क्षेत्र में यद्यपि नारी का अमूल्य योगदान रहा है ।

परन्तु इस क्षेत्र में उन्हें काफी संघर्ष के उपरान्त कुछ हासिल हुआ है इस पर भी उसकी संख्या अत्यन्त कम रही । यदि हम खुले मन से उसे साहित्य के क्षेत्र में आगे बढने दें तो निश्चित ही वह शालीनता को सुरक्षित रखेगी । उसकी कलम से अशलीलता व कामुकता भडकाने वाला, अपराधी प्रवृत्तियाँ उभारने वाला कुत्सित साहित्य नहीं लिखा जा सकता ।

मातृ-शक्ति को द्रोपदी की तरह निर्वसन करने की, सरस्वती को वेश्या स्तर पर घसीट लाने की उच्छूंखलता तो पुरुष ही बरतता है । नारी अपनी निजी गरिमा को इस प्रकार कलंकित न होने देगी । वह जो कुछ भी लिखेगी वह माता-पिता, भाई-बहन, पति, पुत्र, पुत्री को सद्‌भावना सम्पन्न बनाने वाला ही हो सकता है ।

प्रेस, प्रशासन, पत्रकारिता, साहित्य विक्रय के क्षेत्र में नारी को वरीयता देनी चाहिए क्योंकि आज इन क्षेत्रों में व्याप्त विकृतियों का निराकरण कर सकना उसी की शालीनता द्वारा सम्भव हो सकता है । कोई किसी आत्मा को लोभ अथवा धन दिखाकर खरीद ले तो बात दूसरी है अन्यथा नारी को आत्मिक कलाकारिता यदि स्वेच्छापूर्वक कलामंच में उन्मुक्त वातावरण में प्रवेश करेगी तो उसका संगीत, अभिनय पूरी तरह शालीनता से ही भरा-पूरा होगा ।

पवित्रता और प्रकाशमान प्रखरता से भरा हुआ कला मंच किस प्रकार मानवीय अन्तरात्मा को परिष्कृत बना सकता है यह बताने की आवश्यकता नहीं है । निश्चय ही यह अत्यन्त कल्याणकारी होगा तथा समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देगा ।

सार्वजनिक सेवाओं व सरकारी विभागों में शिक्षा, चिकित्सा एवं समाज कल्याण जैसे विभाग नारी के लिए ही सुरक्षित रखे जाने चाहिएँ । यों तो उसे हर क्षेत्र में प्रवेश करके अपनी विशेष प्रतिभा का परिचय देने का अवसर मिलना चाहिए ।

पर उपर्युक्त तीन विभाग ऐसे हैं जिनमें अधिक सहृदयता और स्नेह व अधिक सृजनात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता है । नारी अपने सहज स्नेह से बालकों के अन्तःकरण को समझकर न केवल जानकारियाँ ही उसके मस्तिष्क में उतारेगी वरन् आत्मा में सद्‌भावनाओं व सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण भी करेगी ।

रोगी अपने चिकित्सक से मात्र ओषधि ही नहीं चाहता वरन उससे सहानुभूति की भी अपेक्षा करता है । कहना न होगा यह भंडार नारी के अपेक्षा नर के पास न्यून ही पाया जाता है । उसकी विपुलता को ईश्वर ने नारी में ही भरा है । जिसके पास कुछ है वही तो दूसरे को कुछ दे सकता है ।

समाज की विकृतियों का अधिक दुष्परिणाम नारी को ही भुगतना पड़ा और आज तक सह रही है । अपने काँटे को आप निकालने व उस पर मरहम लगाने में उसकी सहज उत्कंठा रहेगी । समाजगत् कुविचारों, अनाचारों व दुष्प्रवृत्तियों से वह न केवल लड़ ही सकती है वरन् उसके स्थान पर नई सृजनात्मक परम्पराओं को जन्म दे सकती है ।

समाज कल्याण के कार्यक्रम कुछ भी हों पर पीछे भावना वही काम करती है । निराश, थके-हारे और रोते-खीजते जनमानस में नवीन आशाओं, उमंगों का संचार करना नारी के द्वारा ही अधिक भली-भाँति किया जा सकता है । समाज कल्याण की भावना से भरी पूरी नारी प्रकृति ही उस स्तर के सरकारी तथा गैर सरकारी कामों को अच्छी तरह सँभाल सकती है तथा उसमें मात्र दिखाने का नहीं अपितु मनसा-वाचा-कर्मणा सहयोग प्रदान कर सकती है इसमें दो राय नहीं हो सकती ।

सार्वजनिक सामाजिक संस्थाओं का गठन और संचालन यदि महिलाओं के हाथ में हो तो आज की अखाड़ेबाजी और प्रतिद्वन्द्विता के कारण उस क्षेत्र को विषाक्त करते रहने वाली विभीषिका से छुटकारा मिल सकता है और लोकमंगल का पुनीत क्षेत्र अपने युग प्रयोजन की पूर्ति में बहुत हद तक सफल रह सकता है ।

धर्म और अध्यात्म क्षेत्र पर पुरुष का अधिकार बहुत समय से चला आ रहा है, फलत: वहाँ पाखंड ओर भ्रम जंजाल के अतिरिक्त और कुछ बच ही नहीं रहा है । मलिनता नहाने वाले साबुन को ही यदि कोयले के चूरे से बनाएँ तो स्वच्छता का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता ।

इस क्षेत्र में नारी को नेतृत्व देना ही चाहिए । ईश्वर ने उसकी आरम्भिक संरचना दिव्यता की अजस्त्र मात्रा का समावेश करते हुए ही की है । आज की गुजरी स्थिति में भी वह आदर्शवादिता और उत्कृष्टता का निर्वाह पुरुष की तुलना में असंख्य गुनी श्रेष्ठता के साथ निभा रही है । यह उसकी सहज प्रकृति और ईश्वर प्रदीप्त विशिष्ट विभूति हैं ।

पुरुष बहुत श्रम करके जो आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त कर सकता है वह नारी को अनायास ही उपलब्ध है । प्रेम से, भक्ति से, उसका अन्तःकरण स्वत: ही पूर्ण रहता है । आस्तिकता, आध्यात्मिकत और धार्मिकता के जो लक्षण तत्वदर्शियों ने बताए हैं, उनमें से अधिकांश को नारी के सहज स्वभाव में समाया हुआ देखा जा सकता है ।

ऐसे उज्जवल भविष्य के सपने जिसमें नारी संसार के भावना क्षेत्र का नेतृत्व कर रही होगी और भौतिक क्षेत्र में सुव्यवस्था की सुदृढ़ नींव रख रही होगी । इस स्वप्न को साकार तभी किया जा सकता है जब लोकमानस को इसके लिए जागृत किया जा सके । यदि प्रत्येक व्यक्ति मन से यह संकल्प लेकर चलेगा तो कार्य पूर्ण न हो ऐसा सम्भव ही नहीं ।

लोकमानस एक अति विशालकाय और अति समर्थ महादैत्य है । इसकी तुलना पौराणिक कुम्भकरण से की जा सकती है । वह दैत्य जब सोता था तो इतनी गहरी नींद में सोता था कि छाती पर हाथियों का झुंड घुमाते रहने पर भी करवट नहीं बदलता था, पर जिस दिन जागता था उसे पर्वत जैसा आहार उदरस्थ करने से लेकर अन्य अनेकों कठिन-से-कठिन कार्य चुटकी बजा के पूरा करके रख देता था ।

निश्चित रूप से ऐसी विशेषताओं से सम्पन्न महादैत्य केवल जनमानस ही हो सकता है । संसार की महान क्रान्तियों के पीछे लोकशक्ति का ही हाथ रहा है यह सर्ववदित है । इसी प्रकार नारी उत्थान की क्रान्ति व्यक्ति विशेष द्वारा सम्भव नहीं हो सकती ।

चाहे वह व्यक्ति कितना ही धनी, विद्वान, सत्ताधारी व प्रतिभा सम्पन्न हो । वह तो इतने सुविस्तृत क्षेत्र में नगण्य-सी हलचल ही उत्पन्न कर सकता है । अत: यदि कुछ बडा करना है तो लोकशक्ति को साथ लेना होगा ।

जनमानस को शक्ति वाष्प से भरे हुए विशालकाय इंजन के समान है । उसे उत्पन्न करने के लिए देर तक ईंधन जलाना पडता है और आवश्यक गर्मी जुटाने के प्रबन्ध करना पड़ता है । आज ज्वलन्त समस्याओं द्वारा लोकमानस को उग्र करने की आवश्यकता है । प्रत्येक बुद्धि सम्पन्न मनुष्य को नए सिरे से विचार करने के लिए बाध्य होना पडे ।

पत्तन ने कितनी क्षति पहुंचाई, उत्थान से उसकी कितनी भरपाई हो सकती है, इसका विचार प्रत्येक मस्तिष्क को करना चाहिए अनादि काल से वरिष्ठता प्राप्त नारी को किन परिस्थितियों और किन मनःस्थितियों ने दयनीय दुर्दशा में ला ढकेला, इस दुःखमयी इतिहास को पढना होगा । अवांछनीयता को मानयता देने की सामाजिक मूढ़ता पर प्रचंड शेष जगाना पड़ेगा ।

नारी समस्या के विभिन्न पहलुओं पर जन-साधारण का पूरा-पूरा ध्यान केन्द्रित हो और हर व्यक्ति इसकी हानियों से अवगत कराया जाए तभी वह आक्रोश जगाया जा सकेगा । जो बड़े परिवर्तनों की भूमिका प्रस्तुत करता है । उसके लिए आवश्यक साधन जुटान है ।

जब तक परिवर्तन के कारण उपलब्ध होने वाले लाभों को भली प्रकार न समझा जाएगा । तब तक उस दिशा में न उत्सुकता उत्पन्न होगी न आतुरता । अन्यमनस्क मन बहुत दूर तक नहीं चल सकता । बाल बुद्धि से खेल-खिलौने ही बन सकते हैं ।

वह क्षणिक उत्साह से एक क्षण घरोंदे बनाती है और दूसरे क्षण उसे बिगाडकर ताली बजाकर नाचती है । पानी के बुलबुले उछलते कूदते तो हैं पर न तो वे देर तक जीते हैं और न लम्बी यात्रा करते हैं । दृढ़ संकल्प करने और आधी तूफानों से टकराते हुए लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अनवरत गति से यात्रा करने के लिए मनुष्य को साहस व गहरे चिन्तन की आवश्यकता होती है ।

किसी भी प्रयास के लिए मनुष्य को लुहार की भट्‌टी में तपाना पड़ता है और करारी चोटें देकर सीधा-उल्टा करना पडता है, तभी उस अनगढ़ लोहे खड से कुछ उपयोगी उपकरण बन पाता है । सभी दिशाओं में छाए हुए घनघोर अन्धकार के बीच प्रकाश की एक ही आशा किरण शेष रह गई है वह है लोकमानस का पुनर्जागरण और उसकी प्रखरता का अभिवर्धन । इस महाचंडी का आश्रय लेकर समय-समय पर मदोन्मत दानवों का मान-मर्दन सम्भव होता रहा है ।

आधी जनसंख्या को अपंग बना देने वाले और शेष आधी को दुर्भाग्य भरे संकट झेलने के लिए विवश करने वाले महिषासुर को सिंह वाहिनी महाकाली ही निरस्त करेगी । लोकशक्ति ही वह दुर्गा है जो समान में अन्याय, अत्याचार, हिंसा व अनीति के प्रचलन को विर्दार्ण कर सकती है ।

लोकमत के सम्मुख तो समर्थ से समर्थ सत्ताओं को सिंहासन छोडने पड़े हैं । प्रथाओं और परम्पराओं को पलायन करना पडा है । विधान व प्रचलन उलटे हुए हैं । संसार के इतिहास में अनेक स्तर पर समय-समय की अनेकोनेक महाक्रान्तियों के विवरणों का उल्लेख मिलता है ।

उन प्रचंड परिवर्तनों के पीछे जनमत की शक्ति ही प्रधान रूप में कार्य करती दृष्टिगोचर होती है । भले ही उसका नेतृत्व किसी ने भी किया है और उसका श्रेयाधिकारी कोई भी बना हो । अत: अब यह स्पष्ट हो चुका है कि किसी एक या दो व्यक्ति या एक दो संगठनों के प्रयास मात्र से किसी बड़े परिवर्तन की आशा नहीं की जा सकती है ।

नारी उत्कर्ष को अभिनव उत्कर्ष में बदलने के लिए लोकमानस को इस स्तर पर प्रशिक्षित करना पड़ेगा कि वह अपकर्ष और उत्कर्ष को समझ सके । पग-पग काँटे चुभाने वाली झाड़ियों में भटकना छोड़कर उज्ज्वल भविष्य के राजमार्ग पर चलने को कटिबद्ध हो सके ।

उज्जवल भविष्य के इस राजमार्ग पर चलने का उपाय है महिला सशक्तिकरण द्वारा हम भविष्य को स्वार्णिम बना सकते हैं । मानव समाज का अरुणोदय महिला सशक्तिकरण को माना जा सकता है क्योंकि यही प्रयत्न बीज के रूप में लगाकर नव सृजन करेगा, जिसकी छाया में स्वर्गोंगम वातावरण का निर्माण हो सकेगा ।

बाधाएँ रास्ता रोकती तो हैं यदि उन्हें हरा दिया जाए तो गति को पंख लग जाते हैं । सशक्तिकरण का विषय भी कुछ ऐसा ही है । हमारी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कुप्रथाओं का दंश महिलाओं के अधिसंख्य भाग को आज भी झेलना पड़ रहा है । इस सशक्तिकरण का उद्देश्य महज राजनीति तक सीमित नहीं है अपितु इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है ।

इसके अन्तर्गत अधिकारों व अवसरों के प्रति जाग्रति, कानूनी उपाय व उसका क्रियान्वयन, आर्थिक अधिकार सम्पन्नता के लिए आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था, आत्मसम्मान व आत्मविश्वास में वृद्धि के उपाय, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, पोषण एवं अन्य सम्बद्ध सुविधाओं तक महिलाओं की पहुँच आदि सभी विषय आते हैं ।

जब हम शक्ति या क्षमता के अधिकार सन्दर्भ में महिलाओं को विशेष अधिकार एवं कर्तव्य बोध कराते हैं, उन्हें समाज या समुदाय से जुडे मुद्दों पर निर्णय लेने अथवा नीति लागू करने की क्षमता प्रदान करते हैं तो यह प्रक्रिया महिला शक्ति की ओर संकेत करती है सशक्तिकरण का अभिप्राय शक्ति प्रदान करने में विस्तार पाता है ।

समाज में शक्ति-सम्पन्न और शक्ति विहीन व्यक्तियों की पुनर्व्याख्या है, जहाँ शक्ति की नवीन व्यवस्था द्वारा समाज में परिवर्तन देखा जाना है । स्त्रियों का सशक्तिकरण उन्हें नए क्षितिज दिखाने का प्रयास है, जिसमें वे नई क्षमताओं को प्राप्त कर स्वयं को नए तरीके से देखेगी ।

सशक्तिकरण का प्रयास महिलाओं की क्षमताओं को पहचानने व उन्हें उभारने का है । इस बेहतर वातावरण में वे घरेलू शक्ति सम्बन्धों का बेहतर समायोजन करेगी और घर तथा पर्यावरण में स्वतन्त्रता की अनुभूति कर सकेंगी ।

सशक्तिकरण का मुख्य लक्ष्य तो स्त्रियों का सामाजिक, राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन मैं प्रतिनिधित्व दक्षता में अभिवृद्धि, कार्यक्षेत्र और अन्यत्र उसके साथ किए जा रहे बुरे व्यवहार की समाप्ति, सामाजिक सुरक्षा की प्राप्ति है । इन्हीं उद्देश्यों को पाने के उपायों, प्रयासों का उल्लेख । महिला सशक्तिकरण का महत्व, इसकी आवश्यकता, संवैधानिक पक्ष, कानूनी उपायों  किया गया है ।