Read this article in Hindi to learn about the status of women in India during ancient, medieval and modern periods.

ईश्वर ने मनुष्य को सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी रूप में प्रदान किया । इसी बुद्धि के परिणामस्वरूप उसने खानाबदोश, अनियन्त्रित, अव्यवस्थित जीवन को एक सुधार प्रक्रिया के तहत निरन्तर एक समाज का विकास किया तथा अभी भी वह इस समाज के विकास के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है ।

यह समाज क्या है ? स्त्री व पुरुष उनका ही यह समाज हैं समाज में रहकर उनको यह जीवन जीना होता है । यह समाज स्त्री व पुरुष की भावना की प्रतिच्छाया है व इनके स्वसंवाद की प्रतिध्वनि हैं वे इसे जैसा बनाते हैं वैसा बनता है । यदि दोनों संसार को स्वर्ग बनाना चाहें, तो संसार स्वर्ग बनता है और यदि इसे नरक बनाना चाहें तो यह नरक अतिशीघ्र बनता है ।

अहम, अहंकार, टकराव, इच्छा, क्रोध, द्वेष, हिंसा, स्वार्थ, सभी इसी संसार में रहते हैं । यही टकराव एवं ऊँच-नीच का भाव इस जन्म व मरण की कर्मस्थली रूपी संसार को, नरक का दूसरा संस्करण बना देती है । ऐसी अनेकों समस्याएँ रूपी बबूल हर जगह खड़े हों और नागफनी के पौधे जीवन के हर कोने में उपलब्ध हों ।

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अब इन समस्याओं का मूल कारण खोजें तो हम सहज ही पाएँगे यह समस्या स्त्री व पुरुष की है । सहभागी जीवन की अपेक्षा स्वार्थपरता जैसा यह मेरा है, मुझे यह मिलना ही चाहिए, इसका मेरे से सम्बन्ध है, यह न्याय है, अन्याय है, मुझे मेरे से जो मेरा है इत्यादि, एक का स्वामित्व दूसरे को दासत्व यही इन समस्याओं का मूल कारण है ।

इस सम्बन्ध में श्री जे. कृष्णमूर्ति का कथन भी है- ”तुम और मैं समस्या है । हम संसार नहीं हैं क्योंकि संसार तो हमारी अपनी प्रतिच्छाया है और इस संसार को समझने के लिए हमें स्वयं का समझना है । यह संसार हम से अलग नहीं है, हम ही संसार हैं और हमारी समस्याएं ही संसार की समस्याएँ हैं ।”

यह समस्याएँ भारत ही नहीं अपितुसम्पूर्ण संसार में व्याप्त हो परन्तु जहाँ समस्याएँ हैं वहाँ समाधान भी अवश्य ही होते हैं । कहा भी गया है- ”बाधाएँ रास्ता रोकती हैं । उन्हें हरा दिया जाए तो गति को पंख लग जाते हैं ।” इसी समूची सभ्यता में व्यापक बदलाव के एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में महिला सशक्तिकरण बीसवीं शताब्दी के आखरी दशक का एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक व सामाजिक विकास कहा जा सकता है । किसी भी समाज की आबादी का लगभग आधा हिस्सा महिलाएं हैं ।

किसी भी राष्ट्र के विकास महान कार्य में महिलाओं की भूमिका तथा योगदान को पूरी तरह और सही परिप्रेक्ष्य में रखकर ही निर्माण के कार्य को समझा जा सकता है । किसी एक काल विशेष या युग विशेष में हम महिलाओं की महत्ता व भूमिका का मूल्यांकन नहीं का सकते । इस सन्दर्भ में सभी पहलुओं का मात्र अध्ययन ही नहीं अपितु पूर्ण विश्लेषण ही हमें किसी उचित निष्कर्ष पर पहुँचा सकता है ।

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उसके सम्पूर्ण विश्लेषण हेतु हम इसे तीन भागों में बाँटकर देखेंगे:

1. प्राचीन काल में महिलाओं की दशा व उनकी भूमिका ।

2. मध्यकालीन नारी की दशा व उनकी भूमिका ।

3. आधुनिक काल एवं समकालीन काल में नारी की दशा व उनकी भूमिका ।

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1. प्राचीन काल में महिलाओं की दशा व उनकी भूमिका:

प्राचीन काल में भी महज वैदिक या पूर्व वैदिक ही नहीं अपितु पौराणिक व उपनिषद काल को हम समाहित करेंगे इसके लिए हम पुन: इन्हें दो भागों में बाटेंगे- (i) वेदिक काल, (ii) उपनिषद काल । प्रकृति में सत्व, रज, तम, नाम के तीन गुणों का साम्य है । मानव मात्र में इन तीन गुणों का होना परम आवश्यक है । अतः कार्यानुसार कोई सात्विक, कोई राजस और कोई तामस होता है । इसलिए हम कह सकते हैं कि सृष्टि के आदि से आज तक इन तीनों गुणों के आधार पर ही सृष्टि संरचना होती रही है ।

प्राचीन काल में सात्विक व्यक्तियों की प्रधानता थी । अतः समाज में शान्ति थी व्यक्ति आदर्श चरित्र थे, किन्तु यह कहना सर्वथा असंगत होगा कि उस काल में राजस व तामस प्रकृति के व्यक्ति नहीं थे । इसलिए वैदिक काल में जहाँ मन्त्र दृष्टा ऋषिकाएँ थीं वहाँ क्रूर स्वभाव नारियाँ न हों यह कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता ।

संसार में शुभ-अशुभ, अच्छाई-बुराई का द्वन्द्व शाश्वत है । देवासुर संग्राम, द्वन्द्व-वृत संग्राम विश्व के प्रतिफल का आवश्यक तत्त्व है । अतः समाज में देव और मानव दोनों की सत्ता रही है और सदा से रहती आई है । नारी को हम पुरुष जन्य प्रकृति के रूप में देख सकते हैं । वह एक ओर गंगा भी तो दूसरी ओर गीता भी । अर्थात् मानवता व नैतिकता का प्रतीक । प्रकृति के रूप में उसकी व्युत्पत्ति सोद्‌देश्य, सार्थक और महत्वपूर्ण हैं । उसका अभाव, अपूर्ण और गतिहीन है । क्योंकि वहीं पुरुष की प्रकृति है ।

नारी तो समाज है । समाज है तो उसका धर्म और शील, शुचित है । उसकी मर्यादा समाज को स्थिरता प्रदान करती है । सौन्दर्य की अभिव्यक्ति और महाशक्ति का उद्‌गम स्थल, ‘मातृदेवो भव’ के आदर्श की जननी नारी पूर्व वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक शुभ व सौन्दर्य का पर्याय रही है ।

वैदिक ऋषियों की यह सदा कामना रही कि समाज में सदवृत्तियों का प्रसार हो, अत: वेद के मंत्रों में सर्वत्र भ्रष्ट व्यक्तियों से बचने के लिए प्रार्थना है कि यम-यमी का संवाद ऋग्वेद में नैतिकता का अमर सन्देश देता है ।

एक ओर सृष्टि परिवर्तन के लिए यमी अपने भाई से अनुचित सम्बन्ध के लिए कहती है, किन्तु यम समझाते हुए अन्त में मंगल कामना के लिए कहता है, यदि तुम किसी अन्य पुरुष का ही भली-भाँति आलिंगन करो, जैसे लता वृक्ष का करती है वैसे ही अन्य पुरुष तुम्हें आलिंगन करें, उसी का मन तुम हरण करो, वह भी तुम्हारे मन का हरण करें । इसी में मंगल होगा ।

ऋग्वेद का अध्ययन करने पर विदित होता है कि कन्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक स्त्री जाति का बड़ा सम्मान व सत्कार था । जो कन्या पितृ कुल में जीवन भर अविवाहित रहती थी उसे पितृ कुल में ही अंश मिलता था- ”इन्द्र जैसे आमरण माता पिता के साथ रहने वाली पुत्री अपने पितृ कुल से ही अंश के लिए प्रार्थना करती है ।”

वैदिक आर्य कमनीय कन्या की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं । ऋग्वेद के नवम् मंडल में पूषा तेव से कामनीय स्त्री एवं कमनीय कन्या की याचना है । ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में यथाविधि विवाहित और सती महिला की महान प्रशंसा है । बली के राज्य के समान सती का सतित्व सुरक्षित माना गया है, वहाँ यह भी कहा है कि कल्पना और सद्‌चारिता से निकृष्ट परार्थ भी उत्तम स्थान को प्राप्त कर सकता है ।

ऋग्वेद के नारी के विवाह के सम्बन्ध में अनेक मन्त्र हैं वहाँ लिखा हुआ हैं कि वधु विवाह के समय वस्त्रों से ढकी रहती है । सूर्य के विवाह का आलंकारिक वर्णन है । पति-पत्नी का मिलकर रहने की कामना है । वधु को सौभाग्यवती और सुपुत्र वाली होने की कामना है ।

पति गृह में आकर गृहणी बनने का आशीर्वाद भी है । पति-गृह में सन्तान उत्पन्न करना, प्रसन्न होना वहाँ सावधान होकर कार्य करना, स्वामी के साथ एक हो जाना तथा वृद्धावस्था तक अपने गृह में प्रभुता करने का संकेत मिलता है ।

देव पति को पत्नी देते हैं, वह इसलिए कि दोनों ही गृहस्थ धर्म का पालन करें । दोनों के लिए सौ वर्ष जीने की कामना है । सूर्या विवाह सूक्त में पति-पत्नी को एक माना है । एक मन्त्र में तो लिखा है कि- “वधु अपने कर्म से तुम सास, ससुर, ननद और देवरों की साम्राज्ञी बनो, सबके ऊपर प्रभुत्व रखो” ।

ऋग्वेदिक काल में एक पुरुष विवाह आदर्श था, जिस स्त्री का सम्मान उसका पति करता था, वह उस समाज में अभिनन्दनीय नारी मानी जाती थी । ऋग्वेद के सूक्तों को पढ़ने से यह विदित होता है कि उस समय स्वयंवर प्रथा प्रचलित थी ।

ऋग्वेद के मंत्र में लिखा है कि- कितनी ऐसी स्त्रियाँ जो केवल मुद्रा से प्रसन्न होकर स्त्री चाहने वाले पुरुष के ऊपर आसक्त होती हैं जो भी भद्र और सभ्य है, जिसका शरीर सुसंगठित है, वह अनेक पुरुषों में से अपने मन के अनुकूल प्रिय पात्र को पति स्वीकार करती है ।

इस मन्त्र में धन के लिए शादी करने वाली तथा दूसरी सत्पुरुष को चाहने वाली दोनों स्त्रियों की ओर संकेत मिलता है । इससे पता चलता है कि स्त्रियों को जीवन साथी के चुनाव क पर्याप्त स्वतन्त्रता थी । देवमणियों का यज्ञ में बुलाया जाता था । इला को धर्मोपदेशिका बनाया गया है ।

पितृ गृह में वृद्धावस्था तक रहने वाली धोषा नामक स्त्री ब्रह्मवादिनी बनी थी । धोषा आदि स्त्रियों को अनेक सूक्ष्मों का स्मरण था, वे यज्ञ करने के साथ उपदेश देती थी, वेद पढती थी, एक बात और भी स्पष्ट कर दी जाए, वह यह कि स्त्रियाँ दो प्रकार की थी ।

एक ब्रह्मवादिनी, दूसरी साधारण । जो ब्रह्मवादिनी थी वे हवन करती थी घर में ही वेदाध्यन करती थी, भिक्षा माँगकर लाती थी । यमस्कृति में कहा गया है-”पुराने समय में कन्याओं का उपनयन होता था । वे वेद पढती थी, गायत्री भी पड़ती थी, परन्तु उन्हें पिता, पितृत्य या भ्राता ही पढ़ाते थे, दूसरा नहीं । ऋग्वेद में कुछ मन्त्र ऐसे भी मिलते थे, जो नारी हृदय का दूसरे रूप में चित्रण करते थे । इन्द्र ने प्रायोगिक सम्बन्ध में कहा था- “स्त्री के मन पर शासन करना असम्भव है । स्त्री की वृद्धि छोटी होती है ।”

राजा पुरूरवा से चिढ़कर एक मन्त्र में उर्वशी कहती है कि स्त्रियों का प्रेम व मैत्री चिरस्वामिनी नहीं होती है । स्त्री व वृकों का हृदय एक समान था । इसलिए है राजन तुम मृत्यु की कामना मत करो । ऋग्वेद में एक मन्त्र में विषयान्ध पुरुष को लक्ष्य कर कहा गया है कि “स्मरण पुरुष स्त्री की प्रशंसा करता है ।”

सौतिया डाह का भी स्थान पर उल्लेख मिलता है जिससे आभास मिलता है कि किसी-किसी व्यक्ति के दो-दो पत्नियाँ थी इसीलिए कहा है कि मेरी सपत्नी नीच-से-नीच हो जाए मैं अपनी सपत्नी का नाम तक नहीं लेती । सपत्नी सबके लिए अप्रिय है । मैं उसे दूर-से-दूर भेज देती हूँ । ऋग्वेद के एक मंत्र में कुल्टा की निन्दा और पवित्रता की प्रशंसा है ।

विषगामिनी, पतिविद्वेष्णी और दुष्टाचरणशीलता स्त्री नरक स्थान को उत्पन्न करती है । यही नहीं उपपत्नी का भी एक स्थान पर उल्लेख मिलता है । जार और व्यभिचारिणी स्त्री का भी उल्लेख मिलता है । किन्तु एक बात विशेष रूप से यहाँ उल्लेखनीय है कि समाज में इस प्रकार के अपवादस्वरूप स्त्री पुरुष थे, जिन्हें लक्ष्य का यत्र-तत्र बुराइयों से बचने व कल्याण की कामना है । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि वैदिक काल में पितृ प्रधान सत्ता थी ।

एक पत्नी प्रथा प्रचलित थी किन्तु राज परिवारों में बहुपत्नी प्रथा अपरिचित न थी । घर का स्वामी पति व पत्नी स्वामिनी थी । स्त्रियों का चरित्र समष्टि रूप में बहुत ऊँचे स्तर का था । बहन-भाई, पिता-पुत्री का विवाह निषिद्ध था जैसा कि यमयमी सुक्त से संकेत मिलता है । स्वयंवर प्रथा थी, स्त्री अविवाहितावस्था में पिता व भाइयों के संरक्षण में रहती थी । दहेज प्रथा थी । कन्या को खरीदा जा सकता है । वैदिक मन्त्रों में पाणिग्रहण की अत्यधिक प्रशंसा की गई है ।

विधवा स्त्री अपने देवर के साथ सन्तानहीन होने पर विवाह कर सकती है, दत्तक पुत्र ग्रहण करने की प्रथा उस काल में थी, स्त्रियों का सम्मानपूर्ण स्थान उस समय में था । वैदिक युग का साहित्य नारी समाज का उज्ज्वल रूप प्रस्तुत करता है ।

वैदिक से उत्तर वैदिक तथा उसके बाद महाकाव्य काल का आगमन हुआ । इस काल में नारी के सम्बन्ध में एक मत नहीं दिखाई देते, फिर भी इतना अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि नारी के अधिकार पहले की अपेक्षा कम हो गए थे और अब वह पुरुष की सम्पत्ति माने जाने लगी थी किन्तु जननी की प्रतिष्ठा इस काल में भी बनी हुई थी ।

राजदरबारों का अनुकरण करते हुए अभिजात वर्ग के लोग भी बहुविवाह करने लगे । जिससे नारियों की दशा अधिक बुरी हो गई । कश्यप ऋषि की आठ स्त्रियों व दशरथ की तीन पत्नियों से भी यह ज्ञात होता है कि बहु विवाह का प्रचलन हो चुका था ।

महाकाव्य काल में नारी की उत्तर वैदिक काल से भी अधिक दुर्दशा होने लगी थी । और देश शान्ति तथा समृद्धि होने के कारण जीवन कुछ अधिक शान्त एवं आशंका विहीन हो गया था । ऐसी स्थिति में विलासिता की प्रवृत्ति विकसित होने से स्त्रियों की शिक्षा आदि पर बुरा प्रभाव पड़ा ।

रामायणकालीन समाज में नारी की स्थिति सर्वत्र एक सी परिलक्षित नहीं होती । इस काल में स्वयंवर की प्रथा भी प्रचलित थी, किन्तु कन्या को उसमें पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं रहती थी क्योंकि पिता द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरा करने वाला व्यक्ति ही कन्या का पति हो सकता था ।

अन्तर्जातीय विवाह भी इस काल में प्रचलित थे । यथा श्रवण के पिता वेश्य तथा माता शुद्रा थी । इस काल में माता पिता का पथभ्रष्ट होना पुत्र की स्थिति में बाधक नहीं होता था । शतानन्द का जनक के यहाँ पुरोहित होना इस बात का प्रमाण है ।

इसके अतिरिक्त नारी की स्थिति का अनुमान जनक द्वारा राम विवाह पर दासियों को दान देने तथा भरत के स्वागत के लिए गणिकाओं को बुलाए जाने से भी लगाया जा सकता है । पतिव्रत अब नारी का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य बन चुका था और वह उसे देवता मानती थी । दुःशील, कामरत या धनशून्य पति को भी परम देवता मानने का अनुसूया द्वारा सीता को दिया गया उपदेश इस बात का प्रमाण है ।

महाभारत में नारी को सम्मान की पात्री भी कहा गया है तथा दूसरी ओर उसे सब पापों की जड तथा व्यभिचारिणी भी कहा गया है । वैदिक युग की सम्मानित नारी इस युग में आते-आते पण्य सामग्री बन चुकी थी और पतिव्रत का उसके लिए सर्वाधिक महत्त्व हो गया था ।

महाभारतकार ने देवंत परंपति: की घोषणा अनेक बार करके पतिव्रत धर्म का महत्त्व ही प्रकट किया । पत्नी की घोषणा अनेक बार उसके पतिव्रत धर्म का महत्त्व प्रकट किया । पत्नी की घोषणा एक स्वतन्त्र स्थिति की बजाय पति की सम्पत्ति बताकर कर्ण दुशासन को द्रोपदी के वस्त्र हरण की आज्ञा देता है ।

कर्ण की इस युक्ति का विधुर, कर्ण, भीष्म आदि द्वारा खंडन न किया जाना भी उसे समर्थन का सूचक ही माना जाएगा । यही नहीं युधिष्ठर जैसे धर्मात्मा द्वारा भी पत्नी को द्रव्य के समान पण्य वस्तु बताना इस काल की नारी दुर्दशा का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत कर देता है ।

भीष्म का यह कथन भी तत्कालीन नारी विषय दृष्टिकोण का परिचय देता है । प्रजापति को सब लोगों के धर्मात्मा होने के कारण देवताओं में स्वर्ग भर जाने की आशंका उत्पन्न हुई तब ही पुरुष को पतित करने हेतु नारी की सृष्टि की गई थी ।

गाँधारी द्वारा अन्धे पति के कारण अपनी आँखों पर जीवन भर पट्‌टी बाँधे रहना तथा द्रोपदी को जूएँ पर लगाया जाना नारी दुर्दशा के ही प्रमाण हैं । स्त्री चरित्र के प्रति इस दुर्भावना के कारण ही महाभारत में उसे माया, पापिनी, चंचला, सर्पिणी, आग, विष आदि संज्ञाएँ देकर उसे घातक सिद्ध करने का प्रयास किया ।

इतना ही नहीं एक ओर जहाँ स्वयंवर प्रथा गाम्य रहीं वहाँ दूसरी ओर नारी अपहरण किया जाता रहा । अर्जुन द्वारा सुभद्रा का अपहरण इसका ज्वलन्त प्रमाण है । इस काल में नियोग प्रथा के प्रचलन के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं ।

महाभारत के कई उपाख्यानों के अनुसार अनेक पत्नियों ने अपने पतियों की अनुचित इच्छाओं को पूरा किया है । उदाहरणार्थ मदयन्ती को अपने पति की आज्ञा से वशिष्ठ के पास जाना पड़ा था ।

इस काल में बहुपत्नीत्व भी प्रचलित थें । धृतराष्ट्र के सौं पुत्रों का होना इसी का उदाहरण है । एक और समाज में नारी की यह दुर्दशा थी, दूसरी और महाभारतकर माता को श्रेष्ठ गुरु तथा मातृवध को महापाप बतलाता है ।

यहाँ तक कि कन्या के लिए महाभारत में ”नित्यं निवसते लक्ष्मी: कन्यकासु प्रतिष्ठिता” भी कहा गया है । केवल कहा ही नहीं गया, अपितु महाभारत में गांधारी कन्या की कामना भी करती है इतना ही नहीं, पत्नी द्वारा लाचार पति के राज्य संचालन में सहायता करने के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं ।

जो नारी जीवन के उज्ज्वल पक्ष के द्योतक है । इस काल की नारी ने पुरुष के अत्याचार के प्रति विरोध भी प्रकट किया है । जैन धर्म ने नारी के मातृरूप को अत्यन्त ही आदर प्रदान किया है । जैन धर्म के 24 तीर्थकारों में से 19वीं मल्लीनाथ स्वयं स्त्री थी । इतना सब होने पर भी जैन धर्म नारी को पुरुष के लिए मोक्ष प्राप्ति में बाधा, मृत्युप्राण तथा काम का साधन बताकर उसे त्याज्य भी बताता रहा ।

जैन धर्म के दिगम्बर पंथ वालों ने तो नारी की मुक्ति के द्वार भी बन्द कर दिए । उनके अनुसार तो नारियाँ पुरुष जन्म प्राप्त करके ही मोक्ष प्राप्त कर सकती है । इतना ही नहीं आचार्य शुभचन्द्र ने तो यहाँ तक कहा है कि स्त्री पुरुषों को वज्राग्नि की ज्वाला के समान तथा साँप की दाढ के समान सन्ताप देने वाली है ।

आचार्य अमितगति ने भी स्त्री को माया, अपकारी तथा कुल में कलंक लगाने वाली कहा है । इसके अतिरिक्त इस काल में धनी परिवारों में बहुतपत्नीत्व का भी प्रचलन था और अनेक पत्नियाँ रखने वाले को प्रतिष्ठित भी समझा जाता था ।

नारी की इतनी बुरी दशा होने पर भी इस काल में उच्च कुल की नारियों में शिक्षा का प्रचलन रहा होगा, तभी जैन धर्म के साहित्य को समृद्ध बनाने वाली स्थूल भद्र की सात वहनों के नाम विशेष रूप में मिलते हैं । राष्ट्रकूट के राजा कृष्ण (द्वितीय) के काल में एक पत्नी को अपने स्वर्गीय पति के स्थान पर नगर खंडन की अधिकारिणी बनाया जाना इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है कि उस समय स्त्रियाँ राजनीति में भाग लेती थीं ।

बौद्ध धर्म का जन्म ही वैदिक धर्म के कर्मकाडों, ब्राह्माडम्बरों व संकीर्णता की प्रतिक्रिया स्वरूप ही हुआ था । जिस नारी को पुरुष की अधिकार लिप्सा ने दबा दिया था, उसने इस युग में आकर कुछ चैन की साँस ली । बुद्ध ने यह बताया कि पुरुष और नारी दोनों ही पूर्वजन्म के फलों को भोगते हैं । अतः यह कहना गलत है कि पुरुष द्वारा ही स्वर्ग प्राप्ति होती है ।

उनके इस कथन से पुत्री का जन्म अमंगलकारी समझा जाना बन्द हो गया । बुद्ध के द्वारा धम के द्वारा विधवा, पतिता, वेश्या आदि सभी के लिए खोल दिए जाने से विधवाएँ प्रायः बौद्ध संघ मैं दीक्षित हो जाया करती थीं बुद्ध ने अनेक उत्पीड़ित नारियों को संघ मैं शिक्षा दी थी ।

उनके भिक्षुणी संघ में राजकुमारियों व रानियों के साथ-साथ अम्रपाली, अडढकाशी व विमला जैसी पतिता नारियों को भी प्रवेश दिया गया था । अपनी अन्तिम पर्वतीय यात्रा के समय वैशाली से होकर जा रहे महात्मा बुद्ध का आम्रपाली द्वारा दिए गए निमन्त्रण को नगरपिताओं द्वारा दिए गए निमन्त्रण से अधिक रुचिकर समझना तत्कालीन वेश्या की सामाजिक स्थिति की ओर सकेत करता है ।

इतना सब होने के उपरान्त भी यह एक सत्य है कि बौद्ध भिक्षु संस्थाओं में नारियों का स्थान पुरुषों के समकक्ष नहीं हो सका । वहाँ पर योग्य भिक्षुणियों को अपने से कम उम्र वाले भिक्षुओं के सामने प्रणाम करना पड़ता था व आज्ञा लेनी पडती थी ।

इतना ही नहीं बौद्ध साहित्य में भी नारी को समुचित सम्मान नहीं दिया गया । इस काल में सतीत्व का आदर्श सर्वमान्य न रहने से बौद्ध जातक कथाओं में नारी को सार्वजनिक उपयोग की वस्तु के रूप में वर्णित किया गया ।

अनाभिरत जातक में स्त्री की उपमा नदी, मार्ग, शराबखाना, धर्मशाला और प्याऊ से दी गई है । अन्य कई जातकों में भी स्त्री निन्दा की बातें मिलती हैं बौद्ध मठों में ध्नादिक्य हो गया तो वहाँ का भिक्षुक वर्ग भी तपस्या व संयम से तंग आकर भोगवादी बन गया । बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् बौद्ध धर्म वृक्ष से महायान व हीनयान नामक जो शाखाएँ फूटीं उनके सिद्ध साधकों ने तो नारी-देह पर आसन जमाकर बौद्ध मठों में नारियों का जमघट-सा लगा दिया था ।

इन हठजगियों का जीवन वासना के मध्य ही व्यस्त रहने लगा तथा नारी जाति इनकी तृप्तियों में सहायक होने लगी । इसी समय उड़ीसा के भुवनेश्वर, कोर्णाक और मध्य भारत में खजुराहों के कामकला युक्त मन्दिरों की स्थापना इसकी साक्षी है । इस प्रकार वैदिक युग की ‘देवी’ नारी की स्थिति इस काल में पावनता की पुष्करिणी-सी न रहकर जनसाधारण की प्यास बुझाने वाले पोखर-सी हो गई थी ।

इस युग के उपरान्त स्मृति काल में बाह्य आक्रमणों के कारण, समाज की रक्षार्थ सामाजिकता के सभी विधानों का संचालन हमारे धर्माचार्य ही करने लगे थे । किन्तु वे अपने पूर्ववर्ती मनीषियों के ही शब्दों को अल्प परिवर्तन के साथ दुहराया करते थे । संक्षेप में, इस काल को नारी पतन की चरम सीमा का प्रथम चरण कहा जाता है । इस काल में नारी को हिन समझा गया उसकी जी भर निंदा की गई ।

तैतरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि में नारी के प्रति अत्यन्त ही घृणित दृष्टिकोण विकसित हुआ । मनु ने उन्हें जो स्वतन्त्र न रहने का आदेश दिया है उसी को गौतम, वशिष्ठ, नारद, विष्णु याज्ञवलक्य आदि ने ‘टेपरिकार्ड’ की भाँति मात्र दुहराया है । मनु ने तो यहाँ तक कहा है नैसर्गिक रूप से स्नेह शून्य होने के कारण पत्नियाँ अपने पतियों के प्रति सच्ची नहीं रह सकती । ‘योग वशिष्ठ’ में तो कामिनी के त्याग को ही स्वर्ग-प्राप्ति के साधनों में सम्मिलित कर दिया ।

इतना ही नहीं छह बार गृहस्थ होकर संन्यासी होने वाले भृतहरि ने भी नारी को ‘मनुष्य’ रूपी मछली को फँसाने का काँटा, सन्देहों का भँवर, ध्रष्टताओं का लोक, दुस्साहसों का नगर, दोषी की अक्षय निधि, सैकड़ों कपटों वाली, स्वर्ग द्वारा का विहन, ऊपर से अमृतमय व भीतर से विषमय तथा प्राणियों को बाँधने वाला पाश कहा है ।

शंकराचार्य के ‘द्वार किमकं नरकस्य नारी’ का समर्थन यदि किसी ने नहीं किया तो केवल वराहमिहिर ने नहीं परन्तु उनका यह विरोध अरण्यरोदन मात्र बनकर रह गया । मनु के अनुसार तो नारी को अपने निष्ठुर दुराचारी व कुत्सित पति को भी देवता समझना चाहिए ।

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार भी पति सेवा ही नारी का उपदेश रहा है । इतना ही नहीं हमारी सभी स्मृतियों ने नारी को अपने पति को परमेश्वर मानने की ही व्यवस्था दी । पद्‌मपुराण में तो पति की अराधना को ही जीव द्वारा ब्रह्म की अराधना बता दिया है । इन शास्त्रीय नियमों का उल्लंघन करने वाली नारी के लिए कठोरतम दंड निर्धारित किए थे ।

यहाँ तक कि मनु ने राजा को यह आदेश दिया कि वह शूद्र पुरुष के साथ सम्बन्ध करने वाली नारी को कुत्तों को खिलवा दे । नारी के प्रति इतना अधिक अविश्वास होने के कारण ही इस काल में उसके ताड़न से घर की शोभा बढने लगी ।

यहाँ तक कि उससे वेद पढ़ने तक का अधिकार छीनकर उसके विवाह की अवस्था चार वर्ष निर्धारित कर दी गई । मनु ने भी सहमरण एवं विधवा-विवाह का विरोध कर, पुनर्विवाह करने वाली स्त्री को दुराचारिणी कहा तथा सम्पत्ति पर से भी उसके अधिकार का निषेध घोषित कर दिया ।

इतना होने पर भी याज्ञवलक्य ने पत्नी को त्यागने पर पति के लिए कठोर दंड की बात अवश्य कही तथा विभक्त परिवार में पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र के न होने पर विधवा को पति की सम्पत्ति की अधिकारिणी घोषित किया । किन्तु अपनी अल्पता के कारण ऐसे विचारों का कोई विशेष प्रभाव परिलक्षित नहीं होता ।

प्राचीन काल में स्त्रियों की स्थिति के बारे में जो भी जानकारी मिलती है उससे यह आभास मिलता है प्राचीनकाल के वैदिक समय अर्थात् पूर्व वैदिक काल में नारी की स्थिति सुदृढ़ व अच्छी थी । परन्तु परिवर्तनि काल (उत्तर वेदिक काल) में उसकी स्थिति दूषित एवं बिगड़ती चली गई ।

2. मध्यकालीन नारी की दशा व उनकी भूमिका:

समय की गति निरन्तर चलायमान होती है । परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है । समय बदला व उसी समय के साथ बदली नारी की सामाजिक व धार्मिक स्थिति । पौराणिक काल को यदि हम नारी-पतन की चरम सीमा का प्रथम चरण कहें तो मध्यकाल को अन्तिम चरण कहा जा सकता है ।

वैसे तो विदेशियों के आक्रमण से पूर्व ही भारतीय नारी अशिक्षा, सतीप्रथा, बाधित वैधत्य, बहुपत्नीत्व आदि का शिकार हो चुकी थी परन्तु मुस्लिमों के आगमन ने इन सब बुराइयों की चरम सीमा समाज में व्याप्त कर दी ।

अनेक आक्रान्ताओं वआक्रमणकारियों का समाज पर प्रभाव पडना स्वाभाविक ही था । सामाजिक बदलाव का सबसे अधिक प्रभाव हमें नारी पर ही दिखाई देता है क्योंकि वही समाज व परिवार की आधारशिला मानी जाती है ।

इसके उदाहरणस्वरूप हम देखते हैं- प्राचीन भारत में स्त्रियों को थोड़ा बहुत अलग रखा जाता था और स्त्रियाँ घूँघट का पालन करती थीं, किन्तु परदे का वर्तमान विस्तृत व संस्थागत रूप मुस्लिम शासन के समय से प्रारम्भ होता है । परदे के वर्तमान स्वरूप के विकास को अनेक तत्त्वों ने सम्भव बनाया, जिनमें कुछ महत्त्वपूर्ण इस प्रकार है- उसके कार्य व यौन नैतिकता सम्बन्धी विचार ।

हमें विदित है कि भारत में पुरुष समाज से स्त्रियों का पृथकत्व एक सामान्य बात थी और घर ही उनका क्षेत्र था । परन्तु मुस्लिम लोग अपने साथ वर्ग और जातीय पृथकता और कुलीन वर्ग और शाही व्यवहार के अतिरंजित विचार लाए जिन्होंने यहाँ की अनुकूल भूमि में जड जमा ली ।

इसमें देखा जाए तो एक व्यावहारिक कारण भी जुड़ गया-असुरक्षा की भावना जो 200 वर्षों से अधिक आक्रामकों मंगोलों के आक्रमण के कारण बनी रही । दास प्रथा के विकास ने भी नारी के पतन को नए आयाम प्रदान किए ।

पितृसत्तात्मक सिद्धान्त सारी सामाजिक पद्धति में प्रवेश कर गया था ओर विवाह सम्बन्धी नियमों ओर रिवाजों की मूल आत्मा पर हावी हो गया था । इसी से विवाह सम्बन्धी कानूनों को नए अर्थ प्राप्त हुए । चुनाव की मूल स्वतन्त्रता सम्बन्ध वाले वंश के विरुद्ध अनुपात में प्रतिक्रिया करने लगी ।

जब तक कि रत्री पुरुषों का सामाजिक समागम केवल उन तक सीमित नहीं कर दिया गया जो सगोत्र थे, अर्थात् जो किन्हीं भी परिस्थितियों में विवाह नहीं कर सकते थे । इस प्रकार प्रचलित सामाजिक परिस्थितियों में पति अपनी पत्नी को सामाजिक समागम की स्वतन्त्रता प्रदान करने से बहुत दूर था और उसका ऐसी स्त्री से विवाह करना सम्भव नहीं था जिसने स्वतन्त्रता का उपयोग हो और इस प्रकार नैतिक प्रतिष्ठा गँवाई हो ।

इन्हीं सामाजिक बन्धनों से स्त्रियों के कार्य व उनकी स्थिति गिरती रही कालान्तर में पुरुष की सेवा और जीवन के प्रत्येक चरण में निर्भर रहना ही क्रमशः उसके कार्य व स्थिति माने जाने लगे । वह पुत्री के रूप में अपने पिता के संरक्षण में, पत्नी के रूप में अपने पति के संरक्षण विधवा के रूप में (उस स्थिति में जबकि उसे अपने पति की मृत्यु के जीवन रहने दिया जाता) ज्येष्ठ पुत्र की देखरेख में रहती थी ।

स्त्रियों की बौद्धिक संस्कृति में भी वर्गानुसार भेद था । ग्रामों में जहाँ स्त्री ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक अंग थी, साधारण अर्थ में सांस्कृतिक उत्थान की गुंजाइश नहीं थी । प्राय: घर के कामों में निरन्तर रत रहने के कारण उनकी मानसिक संस्कृति बहुत पिछड़ी हुई रहती थी ।

सिर्फ आक्रमणकारियों के कारण ही नहीं हिन्दु धर्म में भी मध्यकाल तक स्त्री की स्थिति में गिरावट आना प्रारम्भ हो गई थीं इसका प्रमाण हमें मौर्यकाल से ही मिलने लगते हैं । मौर्यकाल में 301 ई.पू. चाणक्य राजनायक बना । चाणक्य ने बहुपत्नीत्व की प्रथा का समर्थन किया तथा वेश्याओं से गुप्तचरों का कार्य कराने का परामर्श दिया ।

चाणक्य ने नारी को सन्तानोत्पत्ति का साधन तथा समस्त झगड़ों की जड़ कहा है । उसने कंचन और कामिनी से बच पाना असम्भव बतलाया है तथा पति को नारी का सबसे बड़ा देवता बताया है । इतना ही नहीं चाणक्य ने ‘भार्या रूपवती शत्रु’ तो लिखा ही है, साथ ही साथ व्यभिचारिणी माता को भी क्षमा नहीं किया है ।

फिर भी माता को उन्होंने गुरु कहकर उसे मानव के हेतु प्रथम विद्यालय माना है । नियोग प्रथा भी इस काल में प्रचलित थी, जिसके अन्तर्गत पत्नी को ‘धर्मनटी’ बनाकर पति द्वारा अन्य पुरुष के पास भेजा जाता था ।

कालिदास के नाटकों में राजाओं की कई पत्नियों का उल्लेख बहुपतित्व की प्रथा की ओर ही संकेत करता है । कथासरितसागर में भी बहुपत्नित्व का उल्लेख मिलता है और कालिदास के नाटकों में भी सती प्रथा का संकेत कई स्थानों पर मिलता है । इस काल में देवदासी का प्रचलन भी अत्यधिक था ।

उज्जैन के महाकाल के मन्दिर में पाँच सौ देवदासियों के रहने का वर्णन भी हमें प्राप्त होता है । हर्षकाल में पर्दाप्रथा यद्यपि काफी कम हो गई थी किन्तु राजपूत काल में यही पर्दाप्रथा पूर्ण शक्ति के साथ पुनर्जीवित हो उठी । कर्नल टाड ने बूँदी के राजकुमार के शिक्षण के समय राजमाता से बात करते समय दोनों के बीच में मोटे पर्दे रहने की चर्चा अपने इतिहास में की है ।

अल्टेकर ने इस प्रथा का प्रारम्भ मुस्लिम काल से माना है । वस्तुतः इस्लामकाल ने नारी के जीवन को पूर्णतः तिमिराच्छादित कर दिया था । मौहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से लेकर मुगल साम्राज्य के पतन तक का इतिहास नारी ने अपने आँसुओं से लिखा ।

मुगलकाल के इन 800 वर्षों में होने वाली पराजयों का सामना भारतीय नारी को जौहर की अग्नि में स्वयं को भस्म करके कराना पडा । वैसे ईसवी शताब्दी के प्रारम्भ होने के साथ-साथ विलास भावना के बढ़ते बाल विवाह प्रारम्भ होने एवं अपने पूर्व गौरव को विस्मृत कर देने से नारी की अत्यन्त दुर्दशा हो गई थी ।

अपनी वासना के कारण पुरुष ने उसे अपने अन्तःपुर हस्म या घर की चहारदीवारी में कैद कर दिया था तथा तन की पावनता को ही अत्यधिक महत्व दिए जाने के कारण उसकी स्थिति और अधिक दयनीय बनती चली गई थी । पुरुष ने उसे स्वर्ण शृंखलाओं में जकड़कर उससे शास्त्रों के मन्त्रों के उच्चारण का अधिकार तक छीन लिया तथा उसे शूद्रों के स्तर तक ढकेल दिया ।

कन्या का जन्म भी इस काल में अभिशाप बन गया था । मुसलमानों में ही नहीं पश्चिम भारत के राजपूतों, जाटों और मेवाडों में भी कन्या का जन्म होते ही उसे अफीम आदि देकर समाप्त कर दिया जाता था, जिससे कि दहेज आदि से बचा जा सके । मध्यकाल के प्रारम्भ से ही विधवा-विवाह की प्रथा समाप्त हो चुकी थी तथा विधवा-जीवन अभिशाप बन चुका था ।

100 ई. के लगभग बाल विधवा प्रथा भी बन्द हो गई थी । सती प्रथा के लिए अब दारुण उपायों का प्रयोग होने लगा था तथा दासियों का क्रय-विक्रय साधारण बात हो गई थी । यद्यपि मोहम्मद तुगलक तथा अकबर ने सती प्रथा को समाप्त करने के प्रयत्न भी किए थे, किन्तु वह सफल नहीं हो सके ।

यद्यपि मुस्लिम शासकों ने रजिया बेगम के अतिरिक्त किसी भी नारी के पाँव राजनीतिक देहलीज पर नहीं टिकने दिए, किन्तु मुगल बादशाह अपनी माँ-बहनों से सलाह अवश्य लिया करते थे । माता के प्रति आदर भावना का पूर्ण आभाव इनमें न था क्योंकि मोहम्मद साहब ने तो यहाँ तक कहा कि स्वर्ग माता के पाँवों तले ही रहता है ।

चाँद बीबी द्वारा अपने पति आदिलशाह को दिया गया सहयोग तथा नूरजहाँ का राज्य-संचालन उन नारियों के समर्थ अस्तित्व का परिचायक है । नूरजहाँ के चित्र के सिक्के भी चले थे । हिन्दु महिलाओं में भी शिवाजी की जननी जीजाबाई की कुशाग्र राजनीतिज्ञता शिवाजी के पुत्र राजाराम की पत्नी ताराबाई के द्वारा औरंगजेब का विरोध, दुर्गावती द्वारा आसफखाँ के आक्रमण का प्रतिरोध, कर्णावती का बहादुशाह से मुकाबला तथा अहिल्याबाई का प्रशासन आदि तत्कालीन नारियों के प्रशासन कौशल एवं वीरता के प्रमाण हैं ।

जहाँ तक शिक्षा का प्रश्न है, इस्लाम नारी शिक्षा के पक्ष में नहीं रहा, किन्तु अपवादस्वरूप गुलबदनबानू, सलीम बेगम, जेबुन्निसा आदि नारियों द्वारा काव्य रचना करने का उल्लेख भी मिलता है । कला व ऐश्वर्य का काल होने के कारण मुस्लिम काल में युद्ध से थके बादशाहों के दरबारों में विलासिता का वातावरण व्याप्त था और उस विलासिता का शिकार बनी भोली-भाली नारी ।

उर्दू के शायरों ने मुगल बादशाहों की इस विलासिता की वृद्धि में सहयोग दिया । जिन्होंने प्रारम्भ में खुदाबन्द करीम को अपना महबूब मानकर शायरी की थी, उन्हीं ने बाद में औरत को अपना महबूब बना लिया । मुगल बादशाहों की विलासिता की प्रवृत्ति के कारण वेश्यावृत्ति को भी बढ़ावा मिला ।

अकबर द्वारा बसाई गई शैतानपुरी इसका ज्वलन्त उदाहरण है । मुगल बादशाहों की विलासिता के परिणामस्वरूप ही अनेक राजपूत नारियों को जौहर की शरण लेनी पड़ती थी । यद्यपि जौहर राजपूत नारी के शौर्य, ओज एवं गरिमा को प्रकट करता है किन्तु ये तो उसके व्यक्तिगत गुण थे, सामाजिक दृष्टि से तो वह उसकी असहाय दशा का ही द्योतक था ।

इस काल में सरदार सामन्तों की तलवार को जंग लग चुका था, जिसका प्रयोग वे आपसी द्वेष के तुच्छ झगड़ों या सुन्दरियों के अपहरण करने में करने लगे थे । यद्यपि इस काल की राजपूत नारी त्याग एवं बलिदान की शिक्षा बचपन से ही प्राप्त करती थी तथा उसने कई बार अपने वीर रूप के प्रमाण भी प्रस्तुत किए थे, किन्तु यह भी एक विचित्र सत्य है कि सामान्य नारी की दुर्बलता के कारण सामन्तों द्वारा नारी की जितनी दुर्दशा राजस्थान में हुई, उतनी अन्यत्र कहीं नहीं हुई ।

इस प्रकार ऋग्वेद काल, यदि नारी के उत्कर्ष की चरम सीमा थी तो इस्लाम काल उसके पतन की । 19वीं शताब्दी से पूर्व ही भारतीय नारी की दुर्बलता अपनी चरम अवस्था तक पहुंच चुकी थी । इस शताब्दी से पूर्व भारतीय नारी कारावास में जीवन बिता रही थी । यद्यपि प्राचीन आर्य नारी की गौरवमय शक्ति को महत्ता तो देते थे किन्तु वह कभी भी पति की छाया नहीं बनी थी ।

इस काल तक आते-आते भारतीय नारी के जीवन का इतिहास वेदना की करुणामय कहानी बनकर रह गया था महादेवी जी के शब्दों में ”चाहे हिन्दु नारी की गौरव गाथा से आकाश गूँज रहा हो, चाहे उससे पाताल काँप रहा हो, परन्तु उसके लिए न सावन सूखा न भादों हरा” की कहावत ही चरितार्थ हो रही है ।

उसे हिमालय को लजा देने वाले उत्कर्ष तथा समुद्रतल कील गहराई से स्पर्धा करने वाले अपकर्ष दोनों का इतिहास आँसुओं से ही लिखना पड़ा है । फिर भी आश्चर्य की बात यह है कि रूढ़ियों की शृंखलाओं में बँधी भारतीय नारी अपने पर ढाए गए अत्याचारों के विरोध मैं एक शब्द भी न कह सकी ।

वह यह भी नहीं समझ सकी यह आदर्श उसके आभूषण नहीं अपितु उसके नारीत्व को निष्प्राण बना देने वाली लौह शृंखलाएँ हैं । पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में यूरोप में होने वाले सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों तथा अट्‌ठारहवीं शताब्दी में बैकन, रूसो, वाल्टेयर आदि दार्शनिक समाज शास्त्रियों ने जिस भात-क्रान्ति का सूत्रपात किया था, उसकी रशमियाँ उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारतीय समाज को भी स्पर्श करने लगी थी तथा उसके प्रभाव से दीर्घकाल से प्रमुख भारतीय समाज नवजागरण के ऊषाकाल में अंगड़ाई लेने लगा था, लेकिन कर्तव्यों के कारण भारतीय नारी को अभी तक उनका अहसास नहीं हुआ था ।

इस शताब्दी के प्रारम्भ में सुधार का स्वर भी मुखरित होने लग गया था, किन्तु चहारदीवारी की बन्दिनी भारतीय नारी के कानों तक वह स्वर पहुंच पाया । इस प्रकार हम क्रमशः देखते हैं पौराणिक काल से मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति निरन्तर गिरावट को प्राप्त होती ही जा रही थी ।

परन्तु क्षीण अरुणोदय के रूप में हम आधुनिक काल में उनकी भूमिका का मूल्यांकन किए बिना सम्पूर्ण निष्कर्ष नहीं निकाल सकते इसी क्रम में हम स्त्री की स्थिति को क्रमशः आधुनिक काल में देखने का प्रयास करेंगे ।

3. आधुनिक काल एवं समकालीन काल में नारी की दशा व उनकी भूमिका:

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य भाग में राष्ट्र के महान सुधारकों के प्रयत्नों के फलस्वरूप नारी कल्याण सम्बन्धी कार्यों का श्री गणेश हुआ । इस समय तक आकर भारतीय नारी ने अपने घर की चारदीवारी लाँघने का साहस जुटाया । इससे पूर्व उसने स्कूल देहरी को प्रणाम भी नहीं किया था ।

इस काल में नारी शिक्षा के प्रसारक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एवं नारी-सुधारक आन्दोलन के अग्रदूत राजा राममोहन राय ने निरन्तर नारी के लिए शिक्षण की व्यवस्था करने का महत कार्य अपने हाथों से किया । सन् 1847 में सर्वप्रथम महिला विद्यालय की स्थापना कलकत्ता में हुई । इस कॉलेज के द्वारा ही महिलाओं के लिए आधुनिक शिक्षा के द्वार खुले ।

जिसके परिणामस्वरूप 1847 में स्थापित गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी ने 1849 में सहशिक्षा प्रारम्भ कर दी । नारी के अस्तित्व को नगण्य सिद्ध करने वाली सतीप्रथा इस काल तक प्रचलित थी किन्तु यह इसका सन्ध्याकाल था । भारतीय जीवन के कलंक को धोने की प्रेरणा राजा राममोहन राय को 1818 में अपने ज्येष्ठ भ्राता जगमोहन की मृत्यु के पश्चात् उनकी भाभी को चिता की ज्वाला में बलात ढकेलते हुए देखकर प्राप्त हुई थी ।

1818 से ही राजा राममोहन राय ने अपने पत्र ‘सम्बन्ध कौमुदी’ में सती प्रथा के विरोध में लेख लिखे तथा सती प्रथा का सम्बन्ध स्त्री के जीवन की आर्थिक विषमता के साथ जोड़ा । मुख्यतः राजा राममोहन राय के अथक प्रयत्नों के फलस्वरूप ही 1829 में सतीप्रथा पर प्रतिबन्ध लगाया ।

इस काल में सतीप्रथा के प्रचलन से यह ज्ञात होता है कि विधवाओं की स्थिति अत्यन्त ही दयनीय थी । अभी भी सामाजिक समारोहों में उसकी उपस्थिति को अशुभ माना जाता था । यद्यपि विधवा-जीवन के प्रति सहानुभूति पूर्ण दृष्टिकोण कुछ समय से व्यक्त किया जाने लगा था ।

किन्तु अभी भी उसके उत्थान के लिए क्रियात्मक कदम नहीं उठाया गया था । 1953 में जब ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विडोमैरिज पुस्तक प्रकाशित की तो पुरातन पंथियों ने उनकी हत्या तक करने का प्रयास किया । विधवा पुनर्विवाह की प्रेरणा उन्हें अपने गुरु के वृद्धावस्था में किए गए विवाह से मिली थी, जिनकी विवाह के एक वर्ष पश्चात् ही मृत्यु हो गई थी ।

उन्होंने इस पुस्तक में पराशर संहिता के तर्कों के आधार पर पुनर्विवाह का समर्थन किया था । उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप 1856 ई. में विधवा पुनर्विवाह विधेयक पारित हो गया । 1869 में होने वाले प्रथम विधवा विवाह में सम्मिलित होने के कारण शंकराचार्य ने महादेव गोविन्द रानाडे का बहिष्कार कर दिया । बाल विधवाओं की दुर्दशा को देखकर ही श्री रानाडे ने मनु द्वारा दी गई व्यवस्था का विरोध किया था । स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी विधवा विवाह में नियोग पद्धति का समर्थन किया था ।

उन्होंने अनेक विधवा आश्रम खोले और स्त्री शूद्रोनाधियाताम का भी खंडन किया किन्तु विवेकानन्द के मत में विधवा विवाह अनुचित ही रहा तथा उन्होंने कभी उसका समर्थन नहीं किया । यद्यपि ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल के प्रारम्भिक वर्षों में नारी की दशा में विशेष सुधार नहीं हो सका फिर भी 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उसकी दुर्दशा-निवारण के सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयास अधिक मात्रा में किए जाने लगे ।

ब्रह्म समाज (1828), प्रार्थना समाज (1867), आर्य समाज (1875) आदि संस्थाओं ने नारी कल्याण के हेतु अनेक प्रयत्न किए तथा रामकृष्ण मिशन तथा थियोसोफीकल सोसाइटी आदि संस्थाओं ने भी इस पावन अनुष्ठान में पर्याप्त योगदान दिया ।

1885 में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो गई थी, जिसने अपने राजनीतिक कार्यक्रम के साथ-साथ नारी उत्थान का कार्य भी करना प्रारम्भ कर दिया था । महादेव गोविन्द रानाडे के प्रयास के फलस्वरूप समाज सुधार के लिए कई अधिवेशन आयोजित होने लगे, जिसमें पर्दा विरोध, विधवा दशा सुधार, बाल विवाह तथा अन्य कुरीतियो के उन्मूलन के प्रस्ताव पारित किए जाने लगे ।

इस प्रकार इस काल से इन नूतन परिस्थितियों के परिवेश में विभिन्न संस्थाओं के अथक प्रयासों के कारण नारी उत्थान की आशा का अरूणोदय होने लगा । पौराणिक काल व मध्यकाल से में क्रमशः पतन की ओर गिरती नारी की दशा किसी से छिपी नहीं थी ।

परन्तु समय के साथ परिवर्तन का शाश्वत नियम है । अब समय चक्र नारी को नेतृत्व की ओर अग्रसर कर रहा था । सहस्त्राब्दियों से दबी-कुचली हुई, गई गुजरी स्थिति में रहने के उपरान्त उसे मानवीय अधिकारों को पहचानने और उपयोग कर सकने का अवसर मिला था । इसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही हुई जैसी भूगर्भ में दबी गैस को कहीं छेद मिल जाने पर ऊपर उभरते हुए प्रचंड वेग धारण करते हुए देखा जाता है ।

मनुष्य की मनुष्यता का औचित्य इसी में है कि विगत की भूलों का परिमार्जन किया जाए । पाप का प्रायश्चित करना होता है और अनीति का परिमार्जन इसी में सज्जनता है कि विगत में अनीति बन पड़ी उसका बिना समय गंवाए सुधार किया जाए और क्षति पूर्ति के लिए ले उत्साह भरा साहस जुटाया जाए ।

शिक्षा व स्वावलम्बन उठती नारी की प्रमुख माँगें हैं । इसे स्वीकार किए बिना कोई चारा नहीं । बन्दी जीवन जीने वाली नारी यूँ तो पालतू पशु की तरह आज भी रखी जा सकती है और उसके साथ मनमाना दुर्व्यवहार भी किया जा सकता है । पर इससे किसी प्रकार के हित साधन की आशा नहीं की जा सकती । निरन्तर उत्पीड़न और शोषण से स्त्री क्षमता दिन ब दिन दुर्बल होती जा रही थी ।

अशिक्षा घर की चहारदीवारी का कारावास, पर्दाप्रथा, बहुप्रजनन, कामिनी और रामिणी के रूप में साहित्य तथा कला के चित्रण आदि कितने ही कुचक है जो नारी को छलने के लिए सदियों से चलाए जाते रहे । इन कुचक्रों के कारण दिनोदिन नारियों की होती जा रही दशा उस मध्यकाल की व्यथा थी ।

परन्तु जैसा कि सभी जानते हैं कि पतझड़ के बाद फल-फूलों से लदा बसन्त भी आकर ही रहता है । तप से प्राप्त होती कुष्ठता अधिक दिन नहीं ठहरती उसके बाद ही घटाटोप बरसाने वाली वर्षा आ धमकती है और जल जंगल को एक कर देती है ।

धूल भरे अंधड़ चलने बन्द हो जाते हैं तथा उसके स्थान पर हरियाली की प्यारी मखमली चादर बिछ जाती है । इतने बड़े परिवर्तन कर सकना मानवीय प्रयत्नों के लिए भले ही कठिन हो, पर उस नियन्ता (ईश्वर) के लिए तो सब कुछ सम्भव है । जिसने इतनी विचित्रताओं से भरा-पूरा ब्रह्मांड रचा है ।

लम्बे समय से आधी जनसंख्या नारी के रूप में दुर्गति ग्रस्त स्थिति में पड़ी चली आ रही है । उसे क्रीतदासी की स्थिति में रहना पड़ा । अधिकारों की दृष्टि से उसे मनुष्य तथा पशुओं की मध्यवर्ती प्राणी समझा जाता रहा । जिसके ऊपर कर्तव्यों का तो पर्वत जितना भार लदा चला रहा है, पर अधिकारों की दृष्टि से उसे अपने मालिकों और पालकों के आश्रित पूरी तरह रहना पड़ता रहा है ।

अपना समय महान परिवर्तनों का पर्व है । कुछ समय पूर्व ही राजमुकुट धाराशायी हो गए । सामन्तों का दबदबा उठ गया । दास दासियों का क्रय-विक्रय अब कहीं दीख नहीं पड़ता । शासन सत्ता आश्चर्यजनक रूप से अब प्रजाजनों हाथ में पहुंचती जा रही है ।

बढ़ते हुए ज्ञान ओर विज्ञान के चरण मनुष्य को नए सिरे से सोचने और नए क्रिया-कलाप अपनाने के लिए बाध्य कर रहे हैं । क्रान्तियाँ सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में ही नहीं हुई वरन् और भी बहुत कुछ बदला है । इक्कीसवीं सदी में विनाश-विकास के रूप में अपनी दिशाधारा उलटने जा रहा है ।

इसे अन्धकार का समापन और अरूणोदय का अभ्युदय कहने के लिए हर किसी को बाधित होना पड़े तो इसमें आश्चर्य नहीं मानना चाहिए । परिवर्तन की परम्परा होती ही हैं सृजन को गतिशील करने वाली । यहाँ हमारा मुख्य ध्यान उस आधी जनसंख्या अर्थात् नारी की स्थिति बदलने से है ।

इस सन्दर्भ में सम्भावना सुनिश्चित है । इन दिनों एकता और समता का वातावरण बनने की सुनिश्चित तैयारियाँ हो रही हैं । जाति और लिंग के नाम पर बरती जाने वाली असमानता को भी अब अवांछनीय और अनैतिक ठहराए जाने का समय आ गया है ।

अब नारी अवांछनीय दमन और शोषण के लिए बाधित रहने तथा करने वाले सामाजिक प्रचलनों तथा यातना क्षेत्र में घुसे हुए अनाचारों का अन्त करने जा रही है । नर-नारी में कुछ अंग-अवयवों की संरचना में अन्तर तो है पर दोनों के बीच किन्हीं मौलिक तथ्यों का अन्तर है नहीं ।

अवसर न मिलने पर तो कोई भी कितनी भी गुजरी स्थिति में जेल के कैदियों की तरह बन्धनों में जकड़कर दुर्गतिग्रस्त देखा जा सकता है । पर उसे यदि स्वतन्त्र चलने तथा प्रतिभा को विकसित करने की छूट मिले तो हर कोई आगे बढ़ने, ऊँचा उठने के लिए पूरी तरह समर्थ है । अपने युग की नारी भी यदि अपनी हिम्मत का समुचित परिचय दे तो निश्चित रूप से उसे सुविधाओं की आवश्यकता तो होगी ।

सुप्रसिद्ध चिन्तक कार्लाइल के शब्दों में- ”भगवान ने नारी की प्रतिमा को हृदय में रखा है ताकि वह प्रतिमा संवर्द्धन का प्रत्येक कार्य स्नेह एवे प्रेम से सम्पन्न करें । यह वार्ता उन्हीं के पास है, जिसके द्वारा वह अपने समाज तथा परिवार परिकर में दिव्य भावना का संचार कर देती है ।”

इसी कारण समय की माँग कहती है कि नारी जागरण का शंखनाद आज चारों ओर गुंजायमान होना चाहिए चाहे पाश्चात्य हों या प्राच्य चारों ओर एक ही स्वर सुनाई पड़ रहा है कि अब नारी को अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ जागना चाहिए । जिससे परिवार समाज एवं राष्ट्र में सुख शान्ति का वातावरण बन सके । क्योंकि नारी के अन्तराल में जो मौलिक गुण हैं वह समाज एवं राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक व महत्त्वपूर्ण आधार हो ।

महर्षि अरविन्द ने आगामी शताब्दी को ‘मदर सेंचुरी’ के नाम से पुकारा है । पर नारी को वर्तमान स्थिति, क्षमता और मनोबल को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि अगली सदी नारी प्रधान होने वाली है । परन्तु शरीर विज्ञान कहता है कि कठिन परिस्थितियों से जूझने, मनोबल को सदा ऊँचा बनाए रखने, आशावादी रहने और प्रतिकूलताओं में भी जीवन का परिचय देने में हमारे हारमोनों का बड़ा महत्व है ।

शरीरशास्त्रियों का कहना है कि जैसे ही कोई व्यक्ति समस्याग्रस्त हो जाता है तथा तनाव की दशा में आता है तो एपिनेफ्रीन नाम का द्रव का स्राव होने लगता है किन्तु शरीर तक्षण ही इसके प्रभाव को निष्क्रिय करने के लिए सक्रिय हो उठता है और एक अन्य नोरएपिनेफ्रीन रस का स्राव करने लगता है । इस प्रकार एपिनेफीन की प्रतिक्रिया समाप्त हो जाती है । बस, अगर सही मायनों में देखा जाए तो यहीं सफलता विफलता का रहस्य छपा हुआ है ।

मैल्कम कैरथर का दावा है कि महिलाओं में तनाव के दौरान जब एपिनेफ्रीन और नोरएपिनेफ्रीन का अनुपात बराबर होता है तो यथास्थिति बनी रहती है अर्थात् प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तनाव की अनुभूति नहीं होती और वे सामान्य रहती हुई प्रतिकूलताओं को आसानी से झेल जाती हैं ।

समय का प्रबल चक्र नारी को नेतृत्व की ओर अग्रसर कर रहा है । सहस्त्राब्दियों से दबी-कुचली गई गुजरी स्थिति में रहने के उपरान्त उसे मानवीय अधिकारों व पहचानने व उन्हें उपयोग कर सकने का अवसर मिला है ।

इसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही हुई है जैसी भू-गर्भ में दबी गेम कहीं छेद मिल जाने पर ऊपर उभरते हुए प्रचंड वेग धारण करते हुए देखा जा सकता है । समय चक्र के साथ परिवर्तन भी जुड़ा हुआ है । जैसा कि हम जानते ही हैं जलाश्य में जितनी गहराई तक दबाव देकर लकड़ी या रबड़ की गेंद पहुँचाई जाए वह उतने ही वेग से ऊपर आती है ।

उत्पीड़न दमन और शोषण का शिकार रहते उसकी मनोभूमि पहले तो दीन हीन जैसी हो गई थी । अपना स्वाभिमान सम्मान, अधिकार सभी कुछ भूल बैठी थी, पर वह स्थिति चिरस्थायी नहीं बन सकी है । खदान की खुदाई चली तो दबे हुए मणि-मुक्तक भी प्रकट होने लगे ।

समय ने जमीन में दबे बहुमूल्य खनिजों को खोद निकाले जाने का अवसर दिया है । वे निरर्थक में सार्थक बन रहे हैं । अब नारियों की दासियों की तरह नहीं खरीदा-बेचा जाता । सारी आयु माता-पिता, पति के संरक्षण में बन्दी की तरह नहीं बितानी पड़ती है, अब वे स्वेच्छापूर्वक प्रगति कर सकती है । शासनाध्यक्षों की तरह महती भूमिका निभा सकती है । शिक्षा ओर चिकित्सा के क्षेत्र में उसने वर्चस्व स्थापित कर लिया है । अन्य कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा जिसमें उसकी प्रतिभा ने अग्रगामी परिचय न दिया हो ।

जहाँ भी अवसर मिला है उसने प्रतिस्पर्धा में पुरुष से अपने को एक कदम आगे ही सिद्ध किया है । पिछले दिनों जापान में भूचाल-सा आया व देखते-देखते महिलाओं ने पुरुषों के हाथों से राजनीति की बागडोर छीनकर अपने हाथों में ले ली । इक्कीसवीं सदी का शंखनाद हुए अभी समय छह मास से अधिक नहीं हुआ है ।

लेकिन परिवर्तन की प्रक्रिया उस राष्ट्र से ही आरम्भ हो गई है । जहाँ सूर्य देवता सबसे पहले अपनी हाजिरी देते हैं । पूर्व के जापान देश से आरम्भ हुई नारी-जागृति की यह क्रान्ति क्रमशः पूरे विश्व को अपने चपेट में लेगी, इसमें किसी को सन्देह नहीं करना चाहिए ।

जापान विश्व का वह अग्रणी राष्ट्र है, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध में पूरी तरह ध्वस्त होने के बाद भी अपनी सांस्कृतिक विरासत, श्रमशीलता, कर्तव्यपरायणता तथा नैतिकता के उच्च आदर्शों के बलबूते प्रगति के उच्चतर शिखर को छू लिया । अब पहली बार यह खतरा सामने आ गया है कि ‘डायट’ (जापानी पार्लियामेंट) में सम्भवत: एक या दो ही पुरुष हैं शेष सभी महिलाएँ ।

मुर्गा बाँग देता है व सूरज के आगमन की सूचना देता है । घटनाक्रम भविष्यता की पूर्व सूचना देता है । इक्कीसवीं सदी नारी प्रधान होगी, इसका उद्‌बोध जापान से हो चुका है । अब बारी विश्व की शेष नारियों के जागने की है । जब सम्पूर्ण समाज में सुधार भावना की स्वर्णिम राशियों विकीर्ण हो रही थी ।

तब नारी समाज ही उसके स्पर्श से कैसे अछूत रह पाता । सन् 1800 के आस-पास स्वतन्त्रता प्राप्ति की भावना के बलबती होने से समाज-सुधार के प्रयत्नों में भी अधिकाधिक शक्ति का संचार होने लगा था । और भारत का कोना-कोना उस नवीन पवन के स्निग्ध स्पर्श से नूतन अंगडाई लेकर जागने लगा था । फिर नारी भी तो देश का अर्द्धांग ही थी अतः उत्थान की दिशा में होने वाले प्रयास भी उस पर अपना प्रभाव दिखाने लगा ।

बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में इस ब्रह्म कोलाहल को सुनकर नारी हृदय में भी युग-युग से युक्त विद्रोह चलने लगा । इसी काल में वेश्यावृत्ति उन्मूलन सम्बन्ध विच्छेद तथा नारी के सम्पत्ति सम्बन्धी प्रश्नों को लेकर वैधानिक सुधार भी किए जाने लगे ।

1907 में नारी शिक्षा के उन्नयक महर्षि कवि ने महिला महाविद्यालय की स्थापना कर नारी कल्याण के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाया था । 1904 ई. में सयाजीराव गायकवाड़ ने अपने राज्य में बाल-विवाह को रोकने का कानून बनाया तथा 1910 में उन्होंने सिविल मैरिज कानून भी बनाया ।

दीर्घकाल से मौन नारी का आभूषण समझा जाता रहा था तथा वह सहनशीलता की प्रतिमा मानी जाती रही थी । ”यत्र: नार्ययस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता” कहने वाले देश में पुरुष ने उसके त्याग के गुण तो गाए किन्तु उसे प्रस्तर की देवी मात्र ही समझा । फिर भी इस काल की सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों ने कुछ ऐसे वातावरण का निर्माण कर दिया, जिसके कारण नारी को स्वतन्त्र करना अनिवार्य हो गया ।

प्रारम्भ में तो पर्दा, अशिक्षा, दहेज आदि समस्याएँ ही शिक्षित नारियों का ध्यान आकर्षित करती रही, किन्तु अब राष्ट्र का राजनीतिक घटना चक्र उन्हें स्वतन्त्रता संग्राम में कूदने की प्रेरणा देने लगा । श्रीमती ऐनी बेसेंट भी 1914 से नारियों में राजनीतिक जागृति फूँकने लगी थी ।

सन् 1917 में श्रीमती ऐनी बेसेंट के कांग्रेस की अध्यक्ष बनने से भारतीय शिक्षित नारियों में एक चेतना जागृत हुई । सरोजनी नायडू तथा अम्मन बीबी भी इस काल में राष्ट्रीय आन्दोलन की अगली पंक्ति में आ डटी थी ।

उसके अतिरिक्त श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित, कस्तुरबा, हंसा मेहता, अरुणा आसक्सली, कमला देवी चट्‌टोपाध्याय आदि महिलाओं ने भी राजनीति में भाग लेने के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में भी जागरण का शंखनाद किया था । श्रीमती ऐनी बेसेंट ने नारी-शिक्षा की महती आवश्यकता पर भी बल दिया था ।

इस काल में महिला-कल्याण के लिए जी.क. देवधर, कर्वे, गांधी, हंसराज, हन्ना सेना, अबला बोस, डॉ. मतु लक्ष्मी रेड्‌डी, रामेश्वरी नेहरू, श्रीमती रामाराव आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । जी.के. देवधर ने नारी पुरुष के समस्त अधिकारों का प्रबल समर्थन किया । I must tell you that women are as intelligent as you are and as capable as you are.

नारी उत्थान के लिए महिलाओं की भारतीय परिषद (1917), अखिल भारतीय महिला परिषद (1927), अखिल भारतीय अशिक्षा कोष (1929) स्नातिका मंच (1949), कस्तुरबा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट (1945), समाज कल्याण संख्या (1953) आदि ने जो प्रयास किए हैं उन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा ।

1921 में इसी राजनीतिक घटनाचक्र के कारण नारी को मताधिकारी प्रदान किया गया । महात्मा गांधी द्वारा प्रारम्भ किया गया असहयोग आन्दोलन ज्यों-ज्यों गति पकडता गया त्यों-त्यों गति पकडता गया त्यों-त्यों स्त्रियाँ भी अधिकाधिक संख्या में जाग्रत होकर भारत माता को स्वतन्त्र कराने के लिए पुरुषों के साथ कदम-से-कदम मिलाने लगी ।

अत: भारत माता के पाँवों में जकड़ी राजनीतिक पराधीनता की बेड़ियों को काटने के लिए उन्हें पहले अपने पावों की सामाजिक कुरीतियों को जंजीरों को काटना आवश्यक हो गया है । यह निर्विवाद सत्य है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में से नारी त्याग के पृष्ठ निकाल देने पर वह अपूर्ण तो रहेगा ही साथ ही असत्य भी बन जाएगा ।

सन् 1930 में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आन्दोलन में केवल महिला अपराधियों की संख्या 17000 थी । नारीत्व के माथे पर से अबलापान का कलंक मिटाने के लिए इन नारियों ने जो त्याग किए, जो यातनाएँ झेलीं उन्हें पुरुष समाज भुलाना चाहकर भी नहीं भुला सकेगा ।

ब्रिटिश सरकार की पुलिस के निर्मम अत्याचारों की शिकार होकर भारतीय नारी ने कारावास की जो कठोर यातनाएँ सहीं, नन्हे-नन्हे बच्चों को गोदी में लिए जो धरने दिए तथा क्रान्तिकारी कार्यक्रमों में जिस साहस से सहयोग दिया वह भारत का ही नहीं, अपितु विश्व के इतिहास का एक उज्ज्वल पृष्ठ है, जिसे पढ़कर पुरुष वर्ग उसे अबला कहने का साहस नहीं कर सकेगा ।

पुरुष वर्ग ने नारी को घर की चार दीवारों में कैद कर अन्धे नैतिक नियमों की जो अर्गला जड़ दी थी, उसे इस काल की नारी ने भीतर से स्वयं खटखटाना आरम्भ कर दिया था । पुरुष नारी पर चाहे जितने अत्याचार करें उसे देवता का प्रसाद मानकर शिरोधार्य करें या पुरुष जन चाहे जितने चाहे विवाह करे उसके जीवन को नरक बना दे, इस व्यवस्था के विरोध में स्वर तेज होने लगा ।

विवाह सम्बन्ध विच्छेद किए बिना ही, दूसरा विवाह करने के अधिकार पर रोक लगाने के सम्बन्ध में भी 1942 बडौदा सरकार ने कानून बनाया । 1946 में बम्बई सरकार ने भी इस प्रकार का हिन्दु बहुविवाह निरोधक कानून लागू किया ।

1949 में हिन्दु-विवाह मान्यता कानून के अन्तर्गत हमारी सरकार ने अन्तर्जातीय विवाह को भी मान्यता प्रदान कर दी तथा 1945 में विशेष विवाह कानून के अन्तर्गत 18 वर्ष की स्त्री तथा 21 वर्ष का पुरुष विवाह-सम्बन्ध के विच्छेद हो जाने पर या अपने जीवन साथी की मृत्यु हो जाने पर ही दूसरा विवाह कर सकते हैं ।

18 मई, 1955 को हिन्दू विवाह-विधेयक पारित होकर अधिनियम बना जिसके द्वारा हिन्दु-विवाह के निषेध तथा विशेष परिस्थितियों में सम्बन्ध विच्छेद की अनुमति प्रदान की गई । 1924 में केन्द्रीय विधान सभा में सर हरसिंह गौड़ ने बाल विवाह के प्रश्न को पुन: उठाया । जिसके फलस्वरूप 1929 में बाल विवाह निरोधक विधेयक भी पारित हुआ ।

यद्यपि सन् 1874 में विवाहित सम्पत्ति अधिनियम बन चुका था, किन्तु अर्थ के अभाव को नारी-दुर्दशा का मूल कारण नहीं माना गया था । जिस समाज में अर्थ जीवन की अनिवार्य सुविधाएं जुटाने का अनिवार्य साधन हों, वहाँ अर्थ के अभाव में कष्टप्रद स्थिति की कल्पना सहज ही की जा सकती है ।

अर्थ के आभाव में परमुश्रापक्षी नारी को जिन पृणित कार्यों के लिए विवश होना पड़ा है, उस दुखद स्थिति पर अश्रु अवश्य बहाए गए किन्तु उस समस्या का सही निदान अब तक नहीं खोजा गया था । जिस अर्थ के अभाव में उसे अपने सौन्दर्य की हाट लगाकर मातृत्व तक तो नीलाम करना पडा और कोमल कामनाओं को कुचलकर पुरुष की पशुता को समर्पित कर देना पड़ा, उस दुखद स्थिति से मुक्ति पाने के प्रयास सही अर्थ मैं इसी काल में आरम्भ हुआ ।

1927 ई. में भारतीय परिमितता अधिनियम के अनुसार मृत पति की सम्पत्ति पर विधवा पत्नी का अधिकार वैध मान लिया गया । यद्यपि 1937 में हिन्दू महिला सम्पत्ति अधिकार सम्बन्धी अधिनियम के अन्तर्गत विधवा के सम्पत्ति विषयक अधिकारों की व्याख्याएँ कर दी गई थी । किन्तु कन्या को अधिकार में सम्पत्ति देने का कार्य 17 जून, 1956 को पारित हिन्दू अधिकार अधिनियम द्वारा पूर्ण हुआ ।

इसके अन्तर्गत नारी को वे सभी अधिकार प्राप्त हुए जो पुरुष को प्राप्त थे । हिन्दू महिलाओं की दशा सुधारने तथा उनके उत्तराधिकार के नियमों में सुधार करने के प्रयत्न का परिणाम था सन् 1957 का ‘हिन्दू कांड बिल’ जिसने नारी को पुराने कायदे-कानून की धरा से मुक्त कर उसके लिए स्वतन्त्र जीवन-यापन के द्वारा खोल दिए ।

इस काल में यह अनुभव किया जाने लगा कि केवल उपदेशों के सहारे नारी को पुरुष की वासना के शिकंजे से मुक्ति नहीं दिलाई जा सकती । अतः अब कानून द्वारा उसे देवदासी बना नृत्य कराने वालों और मनोरंजन के नाम पर चाँदी के टुकड़ों से उसके सौंन्दर्य को क्रय करने वालों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए कानूनी कदम उठाए जाने लगे ।

इस दिशा में सन् 1923 में सर्वप्रथम बम्बई सरकार द्वारा ‘बम्बई वेश्यावृत्ति निरोधक कानून’ बनाया गया । इसके पश्चात् 1930 में क्रमश: मद्रास, उत्तर प्रदेश, बंगाल, पंजाब, मध्य प्रदेश, आदि में भी ऐसे कानून बने । 1934 में बम्बई में देवदासी प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाने का कानून भी बनाया गया ।

1947 में मद्रास में बालिकाओं के कौमार्य को देवार्पित करने को अवैधानिक घोषित कर दिया गया और उसके लगभग दस वर्ष पश्चात् लोक सभा द्वारा महिलाओं तथा बालिकाओं का अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम भी पारित कर दिया गया ।

स्वतन्त्रता-पूर्व से लेकर स्वायत्रयोत्तर काल तक नारी ने अपनी योग्यता के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं । यद्यपि उसके उत्थान के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा कई प्रयास किए गए, कई कानून भी बनाए गए, परन्तु अभी तक उसकी स्थिति में पूर्ण सुधार नहीं हो सका है ।

1960 तक हमारे स्वाधीन राष्ट्र में 80 प्रतिशत नारियाँ पाठशाला के प्रांगण तक नहीं पहुँच पाई । शिक्षा की कमी का एक बहुत बडा कारण तो हमारे समाज में प्रचलित दहेज प्रथा है, जिसके कारण कन्या की शिक्षा उसके पिता पर दुगना भार लाद देती है । और ऐसे वर भी अपवाद-स्वरूप ही मिलते है, जो नकद दहेज की अपेक्षा केवल शिक्षित पत्नी ही चाहते हों ।

अत: साधारण पिता कन्या की शिक्षा पर धन-व्यय करने की अपेक्षा कन्यादान के अवसर पर दहेज के रूप में ही धन देने के हेतु धनराशि जमा रखना ही उचित समझता है । इसके अतिरिक्त हमारी शिक्षा प्रणाली लड़कियों को फैशन परस्त एवं स्वच्छंद बनाने वाली समझी जाने के कारण भी सास-ससुर अधिक पढ़ी-लिखी लड़कियों को बहू बनाकर अपने रोब जमाने के अधिकार को खोना नहीं चाहते । इसी कारण 1860 तक विश्वविद्यालयों में पढने वाली लडकियों की संख्या 18000 से आगे नहीं बढ़ पाई ।

इसका अर्थ यह नहीं कि आधुनिक काल में भारतीय नारी ने अपनी प्रतिभा एवं कुशाग्र बुद्धि का परिचय दिया न हो । सरोजनी नायडू हमारे देश में सर्वप्रथम राज्यपाल बनी थी । उसके बाद विजयलक्ष्मी पंडित 1941-49 रूस में राजदूत व 1983 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की प्रथम महिला अध्यक्ष बनी ।

पदमजा नायडू (बंगाल की राज्यपाल) अरुणा आसफ अली (दिल्ली की महापौर) आदि महिलाओं ने भी महत्त्वपूर्ण पदों पर सफलतापूर्वक कार्य किया है तथा कई महिलाएँ संसद तथा विभिन्न सभाओं के लिए चुनी जाती रही हैं ।

राजनीति के अतिरिक्त आज भी भारतीय नारी ने साहित्यिक क्षेत्र में भी अपने ज्ञान तथा लेखन-प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है । यथा महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमार चौहान, सुमित्राकुमारी सिन्हा विद्यावती कोकिल रामेश्वरी देवी चकौरी आदि ।

जहाँ तक विभिन्न क्षेत्रों में पुरुष की तुलना में नारी की कार्यक्षमता का प्रश्न है, चिकित्सालय, न्यायालय, विश्वविद्यालय आदि कार्य क्षेत्रों में नारी ने अपनी कार्यकुशलता का अच्छा परिचय दिया है । यद्यपि पुरुषों की अपेक्षा उनकी संख्या अल्प अवश्य रही है ।

इससे इतना अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से नारी पुरुष की तुलना में किसी भी तरह कम नहीं है । आवश्यकता है उसके विकास के लिए अनुकूल सामाजिक वातावरण की । केवल स्वदेश की सीमा तक ही नहीं, विदेशी नारियों की तुलना में भी प्रगति की दृष्टि से भारतीय नारी पीछे नहीं रही है ।

उदाहरणार्थ स्नातक की उपाधि भी भारतीय नारी ने इंग्लैंड की नारी से दो वर्ष पूर्व प्राप्त कर ली थी । इतना ही नहीं अमेरिका की प्रथम महिला राजदूत 1949 में बाहर भेजी गई थीं । जबकि हमारे देश में 1947 में ही महिला राजदूत बन चुकी थी । संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रथम अध्यक्षा होने का गौरव भी भारतीय नारी को ही मिला ।

इतना सब कुछ होते हुए भी हम यह नहीं भूल सकते कि ऐसी उन्नत नारियों की संख्या अत्यन्त ही रही । जहाँ एक ओर आधुनिक काल में भारतीय नारी की इस उन्नत स्थिति का परिचय प्राप्त होता है । वहाँ दूसरी ओर अधिकांश मध्यवर्गीय शिक्षित नारियाँ प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालयों में अध्यापिकाएँ चिकित्सालयों में नर्स, दफ्तरों में टाईपिस्ट और कानों पर सेल्सगर्ल्स के रूप में कार्य करती हैं ।

यह कटु सत्य है कि हमारे औद्योगिक क्षेत्र में नारी-श्रम आज भी सस्ता हैं और अधिकांश भारतीय नारियाँ श्रम द्वारा अर्थोंपार्जन करती है । इन अशिक्षित श्रमिक नारियों में लगभग 252000 से भी अधिक फैक्ट्रियों में कार्य करती हैं ।

विदेशों के प्रभाव एवं राष्ट्रीय परिस्थितियों की इस उथल-पुल ने भारतीय नारी के अन्तर को भी आप्लावित किया । जब पाश्चात्य देशों में नारी पुरुष की सहभागिनी बनकर जा रही है तो फिर भारतीय नारी ही घर की बन्दनी व दासी बनकर क्यों रहे यह प्रश्न उसके मस्तिष्क में उभरने लगा है ।

और वह आज पुरुष की दासी या भार्या बनकर नहीं अपितु एक सक्षम संगिनी बनकर जीना चाह रही है । यदि हम भारतीय नारी की स्थिति उसके पत्नी-रूप को ध्यान रखते हुए देखें तो यह कहा जा सकता है कि सखायुग, गुरुयुग तथा देवता युग के पश्चात् नए संवैधानिक परिवर्तनों के कारण भारत में सखा युग का पुनरागमन होने लगा है ।

यद्यपि अतीत की दुर्दशा की प्रतिक्रिया स्वरूप आज वह कहीं-कहीं उसकी सहयोगिनी न बन, उसकी प्रतिद्वन्द्वी बनती जा रही हैं और इसका परिणाम हो रहा है, भारतीय गृहस्थी में माधुर्य का कुछ अभाव दिखाई दे रहा है । पाषाण हृदयों द्वारा कुचली गई नारी जब सही मर्ग नहीं खोज पाई तो उसने प्रतिक्रिया स्वरूप कहीं अपने कोमल भावों को कुचलकर पाषाण सम पुरुष बनाना आरम्भ कर दिया ।

जैसे नित्य प्रति कुदाली चलाने से हथेली की कोमल चमड़ी भी काष्ठवत् बन जाती हैं ठीक उसी प्रकार पाषाण सम पुरुष के साथ रहते-रहते कोमल नारी भी कुछ कठोर बन गई । कभी-कभी ऐसा लगता है कि पराधीनता की बेडियाँ काटने के जोश में आज वह जैसे अपने पाँवों पर कुल्हाडी चला रही है । वह यह भूल गई है । यदि हम अप्राकृतिक साधनों द्वारा जल को अचल या तूल को कठिन बनाकर उसकी शक्तियों से कार्य लेना चाहें तो उनका रूप तो विकृत हो जाएगा साथ ही शक्तियों भी परिमित हुए बिना नहीं रहेंगी ।

क्योंकि तूल अपने हल्केपन में कार्य की जो शक्तियाँ छिपाए हैं, वही लोहे की कठिनता में समाहित है । फल यह हुआ कि आज मातृत्व की गरिमा से उन्मता माता की खोज लेना सहज नहीं, असंख्य पत्नियाँ हैं, परन्तु जीवन को प्रत्येक दिशा में साथ देने वाली अपनी जीवन-संगी के हृदय के रहस्यमय कोने-कोने से परिचित सौभाग्यगर्विता सहधर्मचारिणियों की संख्या उँगलियों पर गिनने योग्य है ।

इस प्रकार भारतीय नारी कभी पुरुष के हृदय की देवी रही तो कभी चरणों की दासी, कभी गृह स्वामिनी रही तो कभी बन्दिनी, किन्तु आज वह क्या बनना चाहती है शायद उसे स्वयं ज्ञात नहीं, आर्थिक दृष्टि से वह आत्मनिर्भर अवश्य होने लगी है किन्तु प्रत्येक क्षेत्र में स्वाधीन नहीं । पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करने की आवश्यकता वह आज भी अनुभव करती हैं इस शृंगार आदि से वह पुरुष के लिए आकर्षण की वस्तु तो अवश्य बनकर रह सकती है, किन्तु उसे श्रद्धानत नहीं कर सकती ।

देश को स्वाधीन हुए दो दशक से अधिक समय बीत चुका है । संवैधानिक दृष्टि से भी नारी एक संभ्रात नागरिक स्वीकार कर ली गई है किन्तु यथार्थ में आज भी स्थिति कमजोर है । आज भी छोटी जातियों व गाँवो में बाल विवाह द्वारा उसके जीवन का सूत्र किसी अनजान के साथ बाँध दिया जाता है और दुर्भाग्यवश यदि वह बालिका विधवा हो गई तो उसे जीवन भर कफन ओढे रहना पडता है ।

कानून द्वारा विधवा विवाह या पुनर्विवाह की अनुमति उसे अवश्य दी गई है किन्तु आज के घुटन भरे सामाजिक वातावरण में ऐसा कदम उठाने का साहस बहुत कम नारियाँ कर पाती हैं । शिक्षा की दृष्टि से भी भारत की अधिकांश नारियाँ आज भी निरक्षर हैं कन्यादान की मंगल बेला में आज भी उसका होने वाला ‘देवता’ उसके जनक से प्राप्त होने वाली धनराशि से ही उसका मूल्यांकन करता है ।

सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार उसे अवश्य मिल गए हों परन्तु आज भी .अन्य धन की प्राप्ति दूर रही अपनी अर्जित धनराशि को भी उसे अपने ‘स्वामी’ के चरणों में अर्पित करना होता है । हमारे संविधान में नारी की स्थिति आज जितनी सुधरी-सवरी व उत्कर्षमय प्रतीत होती है, व्यवहारिक जीवन में उतनी अच्छी नहीं है ।

विदेशी नारियों की तुलना में देखें तो यह कहा जा सकता है कि रूप में मातृत्व को जितना सम्मान प्राप्त है, अमेरिका में नारी को जितनी आत्मनिर्भरता प्राप्त है, फ्रांस में जितनी स्वतन्त्रता प्राप्त है और इग्लैंड आदि देशों की उन्नति के जितने अवसर सुलभ हैं उतने भारतीय नारी को नहीं ।

आज भी सामान्यत: नारी की स्थिति ऐसी है जो पिंजरे का द्वार खुल जाने पर भी मुक्त रूप से सामने खुले आकाश में दूर-दूर तक नहीं उड़ पाती आस-पास छोटी-मोटी उड़ाने भर कर ही रह जाती है । परन्तु किसी भी परिवर्तन के साथ परिणाम तो अवश्य मिलता ही है ।

वह सुखद हो या दुखद । हालाँकि हम परिवर्तनों को पूर्णत: सुखद होने की आशा तो नहीं कर सकते परन्तु इस सदी में निरन्तर हो रहे ये बदलाव एक नई आशा की किरण अवश्य बिखेर रहे थे । इसके परिणामस्वरूप हम ने देखा 1974 को ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष’ के रूप में संसार भर में मनाया गया । उस वर्ष राष्ट्र संघ ने सभी देशों की सरकारों से तथा समाजसेवी संस्थाओं से अनुरोध किया कि वे महिला जागरण के सम्बन्ध में कुछ अधिक सोचें तथा कुछ अधिक करने का प्रयत्न करें ।

इसका प्रभाव भी हमें देखने को मिला थोड़ी हलचलें भी जहाँ-जहाँ दिखाई पड़ीं । यह एक अच्छा चिह्न था यह समझने के लिए एक प्रमाण भी कि हवा का रुख किधर बह रहा है । संसार भर में देशों की सरकारें उसके बाद से अपेक्षाकृत नारी समस्या पर अधिक ध्यान दे रही हैं ।

उनके मार्ग की अडचने हटाने और सुविधाएँ बढ़ाने के लिए कुछ-न-कुछ सोचने और करने के लिए पहले ही अपेक्षा उत्सुकता और सक्रियता प्रकट कर रही हैं । पत्र-पत्रिकाओं में नारी उत्कर्ष पर अपेक्षाकृत अधिक लेख छप रहे है । सभा-सम्मेलनों, प्रस्तावों, प्रदर्शनों की भी धूम है ।

ठोस हो या पोले प्रयास आखिर कुछ तो परिणाम प्रस्तुत करते हैं । जहाँ नारी संगठनों का अस्तित्व था, वहाँ भी मूर्छना जगी है । कागजी खोखा खड़ा न रखकर कुछ रचनात्मक कदम बढ़ाने का उत्साह जगा है । पुरुषों में से भी अनेकों दूरदर्शी लोग यह सोचने लगे हैं कि नारी का पिछडापन मानव समाज को प्रभावित करने वाली सबसे बड़ी समस्या है ।

पिछले समय में भी नारी समस्या पर चर्चाएँ तो होती थीं परन्तु उसे हल्के स्तर की मानकर ऐसे ही हल्की बात माना जाता था, पर अब लोकचिन्तन ने नई करवट ली हैं और उससे उपेक्षित समस्या को प्राथमिकता देने के लिए नई स्फुरण उत्पन्न हुई हैं ।

आशा की जानी चाहिए कि यह उभरता हुआ लोकमानस अपना दूरगामी प्रभाव उत्पन्न करेगा । यों तो समय-समय पर कई आन्दोलन खड़े होते हैं और अपने संयोजकों के प्रभाव तथा उत्साह के अनुरूप उठते-बढ़ते तथा समाप्त हो जाते हैं ।

परन्तु नारी अभियान को उस तरह नहीं माना जाना चाहिए । हम अपने प्रयासों से उसे बरसाती बादल बनने से रोक सकते हैं जो घड़ी भर गर्जन तर्जन कर ठंडा पड़ जाता है । यदि यह कुछ व्यक्तियों का संगठनों का प्रयास भर होता तो भी वैसी आशंका की जा सकती थी ।

पर यथार्थता कुछ और ही है । कालचक्र गतिशील हो रह है और उसने युग बदल देने जैसी करवट ली है । सूक्ष्म जगत में वे सम्भावना बन चली है जो अपने प्रचंड प्रवाह से कितने ही महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत करेगी । नारी की पुर्नउत्थान उन्हीं में से एक सुनिश्चित तथ्य है ।

इस पर प्रकाश की एक ऐसी किरण विद्यमान है जिसकी क्षीण आलोक में उज्ज्वल भविष्य की झाँकी विश्वासपूर्वक की जा सकती है । जिनको सूक्ष्म जगत और उसकी सत्ता पर विश्वास है वे जानते हैं कि क्रिया की प्रतिक्रिया का अकाट्‌य प्रकृति नियम अवांछनीयताओं को उलट देने का सरंजाम आदि काल से जुटाता रहा है । विश्व का सन्तुलन बनाए रहने के लिए ऐसे अन्धड तूफान खड़े होते रहे हैं, जिन्होंने निराशा और आतंक की मेघमाला को छिन्न विछिन्न करके समय-समय पर घुटन को दूर किया है ।

मनुष्य की समष्टि अन्तरात्मा जिसे विश्वात्मा या परमात्मा कह सकते हैं, विकृतियों के निराकरण के लिए समर्थ प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती रही है । और अनन्त काल तक यह क्रम चलता ही रहेगा । शरीर में विषाणुओं का, विजातीय द्रव्य का जब अवांछनीय जमघट एकत्रित हो जाता है तो प्रकृति कोई तीव्र रोग संवेग खडा करती है ।

शरीर स्वास्थ्य के सन्तुलन की तरह समाज स्वास्थ्य में विकृत विषाणुओं, भ्रष्ट मान्यताओं और गतिविधियों की भरमार हो जाती है । तो अनिवार्य रूप से उसकी सुधार प्रक्रिया सामने आती ही है । अनैतिक सर्वत्र असम माना गया है और सदा सर्वदा उसकी प्रतिक्रिया हुई है ।

यदि ऐसा न होता तो समय-समय पर प्रकट होने वाले दुर्दान्त असुरों से अब यह संसार आतंकित होता है । देखा जाए तो परिवर्तन निरन्तर होता ही जा रहा है । इन सब राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों, परिवर्तनों एवं प्रयत्नों के कारण बनने वाली नारी स्थिति ने आलोचयकालीन काव्य के नारी चित्रण को बहुत अंशों में प्रभावित किया है तथा निरन्तर कर रहा है ।