Here is a list of eminent women leaders of India in Hindi language.

राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि दृष्टिकोण से विवेचना करने पर प्रदर्शित होता है कि महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका का निवर्हन किया है । हालांकि महिलाएं विभिन्न विषमताओं का मुक्तभोगी रही है, फिर भी अनेक क्षेत्रों में किए गए कार्यों के आधार पर महिलाओं ने पुरुष समाज में बराबरी का दर्जा प्राप्त कर लिया है । कुछ महान् महिलाओं के विवरण दी जा रही है ।

जो निम्नलिखित हैं:

1. रजिया सुल्ताना (Razia Sultana):

रजिया सुल्ताना की गिनती देश की महान महिलाओं में होती है । वह मध्यकाल में शासक बनीं और कुशलतापूर्वक राजकाज चलाया । रजिया इल्तुतमिश की पुत्री थी । उनका शासनकाल 1236-1240 के मध्य था । वह प्रभावशाली राजनीतिज्ञ, न्यायप्रिय, साहसी, चतुर कूटनीतिज्ञ, पराक्रमी तथा दृढ़ प्रतिज्ञ प्रथम मुस्लिम शासिका थीं ।

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रजिया सुल्ताना में शासक बनने के सभी गुण मौजूद थे । सुल्तान के पद प्राप्ति में इस्लामी कानून बाधा बन रही थी । लेकिन रजिया के व्यक्तित्व योग्यता एक सैन्य नेतृत्व की गुण ने शासिका चुनने के लिए मजबूर कर दिया इल्तुतमिश ने पुत्र फिरोज की जगह बेटी रजिया को सुल्तान के पद हेतु मनोनीत किया । भारत

हालांकि सामन्तों तथा उलेमाओं ने इसका काफी विरोध किया, लेकिन फिर भी वह सन् 1236 में दिल्ली की सुल्तान बनीं जो उनकी बुद्धिमत्ता, योग्यता व कुशल राजनीतिज्ञ-कूटनीतिज्ञ होने को प्रमाणित करता है ।

रजिया के लिए तख्त काँटों की सेज की तरह था । सुल्ताना रजिया की सौतेली माँ शाह तुर्कान व भाई फिरोज दोनों इल्तुतमिश द्वारा रजिया को राज्य का उत्तराधिकारी मनोनीत किये जाने का विरोध कर रहे थे ।

रजिया को गद्दी से हटाने के लिए उलेमा व सामन्त वर्ग से मिलकर योजनाएं बनाई गई, परन्तु रजिया ने पूरी ताकत तथा बहादुरी के साथ उनकी योजनाओं को विफल कर दिया । राजनीतिक दूरदर्शिता एवं अद्भुत प्रशासनिक क्षमता का परिचय देते हुए अपने विश्वासपात्र सरदारों को विभिन्न पदों पर नियुक्त किया ।

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सूबों में नवीन अधिकारियों की नियुक्ति की और शासन का केन्द्रीकरण किया सरदारों के विरोध को समझते हुए उन्होंने उनको अपने पक्ष में किया । बिहार के विद्रोही सरदार तुगुलखाँ ने भी रजिया के आधिपत्य को स्वीकार किया था । रजिया का आधिपत्य उच्छ से लेकर लखनौती तक था ।

रजिया पुरुषों की तरह मर्दाना कपड़े पहनना आरम्भ की, दरबार लगाना, अस्त्र-अस्त्र चलाना, शिकार, घुड़सवारी, बोर्दा में रहना आदि आरम्भ किया गुलाम तुर्की सरदारों की भक्ति को कम करने तथा सुल्तान की शक्ति में वृद्धि करने हेतु विदेशी एवं तुर्क मुसलमानों को उच्च प्रशासनिक पद प्रदान किया ।

देश की आंतरिक शासन को कुशलता से चलाने के अलावा रजिया ने विदेश नीति में बहुत समझदारी दिखाई । इसका पता डस बात से लगता है कि जब ख्वारिजम के शासक हुसैन करलुग को मंगोलों ने निष्कासित कर दिया तो उसने उसे भारत में शरण दी और उन्हें यथोचित सम्मान भी दिया ।

परंतु मंगोलों के विरुद्ध किसी सैनिक कार्रवाई में सहयोग न कर उन्होंने दिल्ली सल्तनत को सुरक्षित रखा । आक्रमणकारी मंगोलों के साथ सैनिक कार्रवाइयों से तंग आकार वह अलाउद्दीन खिलजी व मुहम्मद बिन तुगलक जैसे शासकों से किसी मायने में कम नहीं थीं ।

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रजिया युद्ध में भी भाग लेती थीं । और उनका युद्ध प्रबंधन अद्भुत था । वह प्रजा के सुख-सुविधा का भी काफी ध्यान रखती थी । उनका शासन काल संक्षिप्त ही रहा । उन्होंने करीब 3 वर्ष, 6 माह व 6 दिन तक राज्य किया । रजिया का शासनकाल सीमित होने पर भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।

रजिया योग्य पिता का योग्य पुत्री थी । समय के साथ उसने प्रशासनिक उक्षता दिखाकर साबित कर दी । वह प्रसा हिर्तेपी थी, रूढ़िवादिता का अवगुण नहीं था । प्रजाहित एवं सुजान की प्रतिभा तथा शक्ति पर विशेष ध्यान देती रही । साथ ही पर्दा प्रथा की कट्टर विरोधी थी ।

यही कारण था कि तत्कालीन मुस्लिम समुदाय उससे द्वेष रखता था । अपने शासन के करीब तीन वर्षों में वह दिल्ली सल्तनत को सुरक्षित रखने, जनता का विश्वास जीतने व लोक-समर्थन के बल पर शासन करने में काफी हट तक सफल रहीं । इस दृष्टिकोण से लोक-समर्थन प्राप्त लोकप्रिय शासिका के रूप में रजिया सुल्तान का सम्मान प्राप्त है ।

इतिहासकार मिन्हाज-उस-मिराज ने सच ही लिखा है- “रजिया में वे सभी प्रशंसनीय गुण विद्यमान थे जो एक सुल्तान में होने चाहिए ।” रणकौशल व कूटनीति की दृष्टि से वह एक श्रेष्ठ शासिका थी ।

शासक के कर्तव्यों का उन्होंने भली-भांति अनुपालन कर राष्ट्र व प्रजा की सेवा की । रजिया ने विद्रोही सुबेदारों, सरदारों का दमन कर केन्द्रीय सत्ता को बिखरने नहीं दिया जो उसकी कूटनीति एवं शक्ति की विजय थी ।

रजिया ने अपने शासन काल में विभिन्न प्रकार की राजनीतिक समस्याओं को बड़े धैर्य से निपटाया । विद्रोहियों व कठिनाइयों से मुकाबला करने में उनका प्रेमी हब्शी जमालुद्‌दीन याकूत ने उसका काफी साथ दिया ।

वह दिल्ली सल्तनत का नायब मलियत अथवा प्रधानमंत्री था । रजिया सुल्तान ने उसे घुड़साल-ए-दरोगा से दीवान-ए-अर्ज सेना संचालक बना दिया था । रजिया के विरुद्ध भटिंड़ा के सूबेदार अल्तूनिया ने विद्रोह कर दिया था । याकूब व रजिया दोनों सेना लेकर चल पड़े । परन्तु सरदारों व सैनिकों के गहरे षड्यंत्र में याकूब मारा गया ।

फिरोज का प्रधानमंत्री रुकुनुद्दीन, हाँसी, मुल्तान तथा लाहौर के सूबेदारों को मिलाकर रजिया के विरूद्ध विद्रोह कर दिया । रजिया ने सफल कूटनीति का परिचय देते हुए जुनैदी को पराजित कर दिया । रजिया ने भटिंड़ा के सूबेदार अल्तूनिया के साथ भी कूटनीतिक चालों चलकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया ।

अल्तूनिया ने रजिया के खिलाफ सैन्य हमला कर याकूत को मार डाला और रजिया को कैद कर लिया । रजिया ने अल्तूनिया से शादी कर ली । यह रजिया की द्वितीय कूटनीतिक विजय थी । 13 अक्तूबर, 1240 को कैथल के समीप उसने अपने भाई बहरामशाह के खिलाफ जीवन का अन्तिम युद्ध लड़ा, जिसमें उनकी हार हुई ।

रजिया व अल्तूनिया दोनों को कैद कर लिया गया और अगले ही दिन उन दोनों की हत्या कर दी गयी । लेकिन रजिया का जीवन और एक महिला के रूप में संघर्ष अविस्मरणीय है । वस्तुत: दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाली रजिया एकमात्र स्त्री शासिका थीं ।

वह इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों में सबसे योग्य, सफल व असाधारण शासिका साबित हुईं । सैन्य व्यूह रचना तथा राजनीतिक गुटबन्दी में वह अद्वितीय थीं । उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर दिल्ली सल्तनत की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाई ।

अपनी अद्भुत शूरता तथा वीरता के बल पर तुर्क अमीरों राव मालिकों को सम्राज्ञी आज्ञा स्वीकार करने के लिए विवश किया, जबकि इस कार्य में सफलता प्राप्त करना इल्तुतमिश के लिए भी मुश्किल था । रजिया दिल्ली सल्तनत की प्रथम व अन्तिम सुल्तान थीं, जिसने योग्यता, पराक्रम, आत्मविश्वास व चरित्र-बल से दिल्ली की राजनीति को नियन्त्रित किया ।

तुर्की अमीरों के शक्तिशाली संगठन ने जब दिल्ली सल्तनत के कानून एवं व्यवस्था के चक्का को जाम कर शासन में बाधक बनने का प्रयत्न किया तब उन्होंने अतुर्कों का दल गठित कर उनके प्रभाव और मंसूबों को विफल कर दिया ।

इसके पहले से प्रांतों में जो सुबेदार नियुक्त किए गए थे उन्होंने विरोध करना शुरू किया परंतु उन्हें रजिया की नीतियों का लोहा मानना पड़ा । उन्होंने मलिक कबीर खाँ के विद्रोह को जिस दृढ़ता व साहस के साथ कुचला वह उनके पराक्रमी चरित्र को उजागर करता है ।

उन्होंने ख्वारिज्म के राज्यपाल के निवेदन के बावजूद मंगोलों के साथ प्रत्यक्ष युद्ध नीति न अपनाकर दिल्ली सल्तनत की जिस तरह से रक्षा की वह रजिया के राजनीतिक शासन कार्य-प्रणाली के सफल संचालन को प्रतिबिम्बित करता है । इसकी न्यायप्रियता का ही परिणाम था कि दिल्ली की जनता शासन व्यवस्था से संतुष्ट थी ।

“रजिया एक महान शासिका, बुद्धिमान, ईमानदार, न्यायप्रिय, प्रजापालक व युद्ध कला में निपुर्ण थी । वह सर्वगुण सम्पन्न थी, जो एक सुल्तान में होने चाहिए” (मिनहास-उस-निरास) । रजिया के बाद तुर्क अमीरों ने दिल्ली समृनत को शासन को अंगुलियों पर नचाया । रजिया इल्तुंतमिश वंश की अंतिम महान शासिका थी ।

2. नूरजहाँ (Noorjahan):

नूरजहाँ मुगल वंश की महान शासिका थी । नूरजहाँ का अर्थ हैं- “दुनिया में जिसके समान कोई सुन्दर नहीं हो ।” इसके पहले का नाम मेहरून्निसा था । मेहरून्निसा की पहली शादी फारस के शेर अफगान के साथ हुई थी । कालांतर में शेर अफगान एक युद्ध में मारा गया ।

चार साल बाद मई, 1611 में मुगल भासण्ड के साथ शादी हुई और उसका नाम पहले नूरमहल पुन: नूरजहाँ कर दी गई । नूरजहाँ शनै:-शनै: सम्राट और साम्राज्य-शासन संबंधी मामलों पर असीम प्रभाव डालने लगीं । वह गियासबेग नामक एक फारसी की पुत्री थीं जो कि अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ था ।

उसे इतिमादुद्दौला की उपाधि दी गई थी । नूरजहाँ के बारे में अनेक किवदंतियाँ प्रचलित है । नूरजहाँ के जन्म तथा उसके पिता की स्थिति के विषय में इतिहासकारों का मानना है कि, नूरजहाँ के माता-पिता अपनी मातृभूमि फारस को छोड़कर अपने भाग्य को आजमाने भारत आए थे ।

मार्ग के लिए प्रचुर सामग्री जुटाये बिना ही वह चल दिए थे । पति-पत्नी गरीबी से बुरी तरह ग्रसित थे । गियासबेग की पत्नी गर्भधारण कर रखी थी । इस बुभुक्षित और क्लांत नारी ने मार्ग में ही एक कन्या को जन्म दिया । मार्ग में इस नवजात शिशु को ले जाने में दम्पति असमर्थ थे ।

अत: उसे एक पेड़ के नीचे छोड़कर उन्होंने अपने पथ पर आगे रवाना हुए । अभी कुछ दूर ही चल पाए थे कि माता को अपना शिशु-शून्य जीवन का एक असाध्य भार ज्ञात पड़ने लगा और उसने अपने पति को उस बच्ची को उठा लाने के लिए लौटा भेजा ।

शिशु के समीप उन्होंने एक चमत्कार का दर्शन किया । एक सर्प कुंडली बनाए बैठा था अपने फन द्वारा धूप से उसकी रक्षा कर रहा था । गियासबेग ने सर्प को दूर करने के लिए शोर करना शुरू किया, सर्प वहां से हट गया और गियासबेग बच्ची को अपनी गोद में उठा लिया ।

गियासबेग अनेक समस्याओं का सामना करते हुए लाहौर पहुँचा, जहाँ मित्र की सहायता से अकबर से मुलाकाल हुई । अपनी योग्यता तथा मेधावी पुरुष होने के कारण गिरासबेग को गृह-कार्यकर्त्ताओं (सम्राट के) के पद पर नियुक्त किया गया ।

मिर्जा गियासबेग खुरासान के एक अमीर परिवार से ताल्लुक रखता था और उसके पिता खाजा मुहम्मद शरीफ वहाँ के सुल्तान बेगरबेगी का मंत्री था । परंतु 1587 ई. में परिस्थितियाँ उसके विरुद्ध हो गयीं । उसके पुत्र मिर्जा गियासबेग ने अपना भाग्य भारत में आजमाने की सोची तथा अपने दो पुत्र और गर्भिणी स्त्री के साथ लाहौर की ओर प्रस्थान किया ।

मार्ग में उसे प्रचुर धन एवं संपत्ति की क्षति उठानी पड़ी परंतु कारवाँ के स्वामी मलिक मसूद ने उसे अवलंबन प्रदान किया । मलिक मसूद नामक व्यापारी ने ही गियासबेग का परिचय अकबर से कराया, जिसके फलस्वरूप वह राज-परिचर्या में लग सका ।

सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत होने के कारण अपने कार्य में उसने असाधारण प्रतिभा दिखाई । अतएव उसे तीन सौ का मनसबदार बनाकर 1595 ई. में काबुल का दीवान बना दिया गया ।

वयस्क होने पर इसी बीच में मेहरुन्निसा का विवाह अलीकुली इस्तजलू के साथ कर दिया गया । वह फारस का निवासी था और प्रारंभ में अब्दुर्रहीम खानखाना की अध्यक्षता में पदस्थ था परंतु बाद में राजकीय सेवा में पहुँच गया था । 1599 ई. में जब शाहजादा सलीम को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया था उस समय अलीकुली (शेर अफगान) भी उसके साथ था ।

एक हाथ से शेर मारने के उपलक्ष में उसे शेर अफगान की उपाधि मिली थी । सलीम के विद्रोह के कुछ ही काल के पश्चात शेर अफगान सलीम को छोड़कर अकबर से जा मिला । परंतु शासन सत्ता सँभालने पर जहाँगीर ने शेर अफगान के कार्यों का प्रतिकार न करके उसे क्षमा दान दिया ।

उसे बंगाल प्रदेश के अंतर्गत बर्दवान का फौजदार नियुक्त किया एवं 1605 ई. में उसे एक जागीर दे दी । शेर अफगान पर राजद्रोही होने का अभियोग लगाया गया और जहाँगीर ने बंगाल के तत्कालीन शासक कुतुबुद्दीन खाँ को (जो वहीं राजा मानसिंह के बाद अगस्त, 1606 ई. में नियुक्त हुआ था) शेर अफगान को दरबार में भेजने की आज्ञा दी ।

शेर अफगान को राजाज्ञा की अवज्ञा करने पर दंडित करने का आदेश भी दिया गया । प्रदेशाधिपति का आदेश मिलने पर शेर अफगान जब दो नौकरों सहित 9 अप्रैल, 1607 ई. को कुतुबुद्दीन के शिविर में उपस्थित हुआ तो कुतुबुद्दीन की सेना ने उसे अचानक घेर लिया ।

अवसर की भयानकता को समझकर तथा अपमानपूर्ण व्यवहार को देखकर उसने कुतुबुद्दीन से इस विचित्र व्यवहार का कारण पूछा । कुतुबुद्दीन जब आगे बढ़ रहा था, क्रोधोद्वेलित शेर अफगान ने उस पर कटार का घातक प्रहार किया ।

कुतुबुद्दीन के समर्थक इस बात पर शेर अफगान पर टूट पड़े और उसकी हत्या कर दी लेकिन वह अपने प्राण को त्यागते-त्यागते प्रदेशाधिपति और विश्वासपात्र अंब खाँ पर जानलेवा हमला कर दिया और अन्त में इन दोनों की बारह घंटों के अन्दर ही मृत्यु हो गयी ।

कुतुबुद्दीन की मृत्यु से सम्राट को बहुत दु:ख हुआ । उसने अपनी डायरी में लिखा- “शेर अफगान को नरकवास मिला और यह आशा की जाती है कि उस कुलमुंहे दुरात्मा को यह अभिशप्त जीवन सदैव कि लिए भोगना पड़े ।”

जहाँगीर ने शेर अफगान कि विधवा एवं उसकी पुत्री लाड़ली बेगम को दरबार में बुला लिया । विधवा मेहरून्निसा को उसने अकबर की विधवा सलीमा बेगम की सेविका के पद पर नियुक्त किया । मार्च, 1611 ई. में नौरोज के त्योहार के अवसर पर जहाँगीर की दृष्टि उस पर पड़ी और वह आसक्त हो गया ।

फलस्वरूप मई, 1611 ई. में उसने नूरजहाँ से निकाह कर लिया । नूरजहाँ शारीरिक सौंदर्य तथा शक्ति के स्वरूप थी उसकी प्राकृतिक छवि आभूषणों तथा श्रुंगार से और सुंदर बना देती थी । नूरजहाँ में समस्याओं को सुलझाने की अभूत शक्ति थी ।

वह उच्च शिक्षा प्राप्त थी तथा कविता, संगीत एवं चित्रकला में उसकी विशेष अभिरुचि थी । फारसी में वह पद्य-रचना भी करती थी, उसमें एक साधारण आविष्कार-क्षमता थी, उसी की देन थी कि वस्त्रभूषणों की नवीनता व नये-नये प्रकार के आभूषणों के आविष्कार औरंगजेब के समय तक होते रहे ।

वह बहुत ही शांत चित्त तथा दूरदर्शी थी । निर्धनों और पंडितों की वह मित्र थी । अनाथ कन्याओं के विवाह का खर्च उठाने तथा प्रतिदिन प्रचुर मात्रा में दान देने का उसने नियम बना रखा था । उसमें पुरुषोचित मेधा और महत्वाकांक्षा थी ।

गहनतम राजनीतिक अथवा शासन संबंधी समस्याओं पर अधिकारपूर्ण जानकारी प्राप्त करना उसके लिए मुश्किल कार्य नहीं था । अपने संपर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति और परिस्थिति को अपनी सत्ता से पराभूत करने में उसे आंतरिक आनंद का अनुभव होता था ।

वह वीर और धैर्यनिष्ठ थी तथा आवेशों के वशीभूत हो अपना संतुलन बिगड़ने नहीं देती थी । नूरजहाँ मजबूत सूझबूझ की महिला थी और जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी शीघ्रता से सही और उचित निर्णय लिया करती थी ।

जहाँगीर ने नूरजहाँ की योग्यता तथा कुशलता से प्रभावित होकर अपनी बेगम बनाया था । वह स्त्री समाज की अग्रणी तथा शाही वंश की अधिष्ठात्री बनी, वह राजकीय मामलों में हाथ बँटाने के साथ ही सम्पूर्ण राजसत्ता पर नियंत्रण करने की कोशिश भी की थी ।

जहाँगीर ने धीरे-धीरे शासन के कार्य उसी को सुपुर्द करना शुरू कर दिया । इस समय वह शारीरिक रूप से भी कमजोर हो गया था । कुछ काल बाद नूरजहाँ प्रजा को शाही झरोखे में से दर्शन भी देने लगी तथा स्पष्ट रूप से राज्य-संचालन का कार्य करने लगी ।

किन्हीं-किन्हीं सिक्कों पर तो उसका नाम भी खुदवाया गया । अपने विवाह के कुछ वर्षों के बाद ही नूरजहाँ ने शक्तिशाली गुट का गठन भी किया और राज्य की कमान सम्पूर्ण रूप से अपने अधीन कर ली ।

इस दल का नाम था ‘नूरजहाँ-गुट’ जिसमें वह स्वयं, उसके माता-पिता-भाई तथा उसकी भतीजी का पति शाहजादा खुर्रम सम्मिलित थे । नूरजहाँ की माता अस्मत बेगम, जो एक सुशिक्षित तथा संतुलित विचारों वाली स्त्री थी, उसकी प्रधान परामर्शदात्री थी ।

वह सुसंस्कृत व्यक्तित्व की महिला थी तथा गुलाब के इत्र निकालने की विधि की आविष्कर्ती मानी जाती है । नूरजहाँ का सही पालन-पोषण माता अस्मत बेगम ने किया था । पिता इतमादुद्दौला एक योग्य शासक थे तथा भाई आसफ खाँ अर्थशास्त्री एवं नीतिकूटनीतिज्ञ था । माँ, पिता, भाई नूरजहाँ के राजनीतिक आधारस्तम्म थे ।

3. वेलुनाचियार (Velunachiyar):

ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध संघर्ष में वेलुनाचियार का नाम प्रमुख हैं दक्षिण भारत में ब्रिटिश अधिपत्य के विरूद्ध संघर्ष आरम्भ किया । शिवगंगा के राजपूत शासक मुथु बटुक की पत्नी वेलुनिचायार थी । मारवाड़ों की राजधानी के जमीन को ईस्ट इंडिया कम्पनी अधिग्रहण करना चाहती थी ।

जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी का गवर्नर कूटनीतिक चाल के तहत् आततायी व कुख्यात डाकू कट्टू की सहायता कर शिवगंगा राज्य में ‘लूट-खसोट’ तथा तबाही मचाने की कोशिश की तब वेलुनाचियार ने पति बटुकनाथ के साथ मिलकर उसका कड़ा मुकाबला किया और उसे मौत के घाट उतार शिवगंगा के किले को सुरक्षित किया ।

कट्टू के मोर जाने पर अंग्रेज कलेक्टर जैक्सन व बोंजोर एक बड़ी फौज के साथ शिवगंगा की अरि रवाना हो गये । शिवगंगा में वेलुनाचियार ने अंग्रेजी फौज का जमकर मुकाबला किया । दोनों सेनाओं के बीच जमकर संघर्ष हुआ ।

वेलुनाचियार की वीरता के सामने कम्पनी सेना नहीं टिक सकी और जैक्सन व बोंजोर दोनों सेनापति युद्ध स्थल से प्राण बचाकर भागे । दोनों ने वेलुनाचियार व शिवगंगा के खिलाफ लड़ाई को प्रतिष्ठापरक मानते हुए पुन: घातक हथियारों से लैस होकर एक बड़ी फौज के साथ शिवगंगा पर धावा बोल दिया ।

आक्रमण के दौरान अंग्रेजी सेना ने जमकर भारी तोपों का भी प्रयोग किया । यह संघर्ष महीनों तक चलता रहा जिसमें राजा वीर बटुकनाथ शहीद हो गए । वेलुनाचियार ने अपनी खूनी तलवार से कम्पनी सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटना शुरू कर दिया ।

इस संघर्ष में सेनापति जैक्सन का दाहिना हाथ भी तलवार की भेंट चढ़ गया । इस युद्ध में न्याय ने अन्याय पर विजय प्राप्त की । शिवगंगा राजघराने की प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गये । अंग्रेजों को युद्ध में हराना पड़ा । बेलुनाचियार की निर्भीकता, शौर्य एवं अद्भुत साहस ने अंग्रेजी शक्ति को नष्ट कर दिया ।

4. रानी शिरोमणि (Queen Siromani):

ब्रिटिश शासन द्वारा आदिवासियों के जमीन पर अधिकार किया जा रहा था । रानी शिरोमणि ने आदिवासी किसानों के अधिकारों के लिए संघर्ष प्रारम्भ किया । अंग्रेजी सरकार की इस नीति से गरीब आदिवासियों की आर्थिक स्थिति काफी दयनीय हो गयी ।

फलस्वरूप वीरभूमि, बाँकुरा में चुआड़ों ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया । इन चुआड़ों ने कम्पनी की कोठियों व कचहरियों को लूटा, साथ ही धनुष, बाण, भाले, तलवार एवं बन्दूकें लेकर गोरों पर छापामार हमले किये और उनकी व्यापारिक नावें भी लूटीं ।

रानी शिरोमणि ने 16-17 मार्च, 1798 को चुआड़ विद्रोहियों का सफल नेतृत्व किया और आनन्दपुर में अंग्रेंजी कम्पनी पर धावा बोलकर कई सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया । हमले के बाद अंग्रेजों की दमनात्मक कार्रवाई प्रारम्भ हो गयी ।

चुआड़ों न सुसंगठित होकर अंग्रेजी सरकार से मुकाबला किया । अंग्रेजों की हार हुई । रानी शिरोमणि की पराक्रम, निडरता, साहस को देखकर अंग्रेज घबरा उठे । अम्रत: रानी शिरोमणि को कर्णगढ़ गिरफ्तार कर लिया गया ।

5. चेनम्मा (Chennamma):

दक्षिण भारत में चेनम्मा का जो स्थान है वही मध्य भारत में रानी लक्ष्मीबाई है जिसने अंग्रेजी शासन तंत्र की अस्त-व्यस्त कर दिया था । कित्तूर की रानी चेनम्मा का जन्म, 1778 में काकतीय राजवंश में हुआ था । वह बचपन से ही घुड़सवारी, आखेट, अस्त्र-शस्त्र तथा युद्ध कला में काफी निपुण थीं ।

उनके पिता का नाम थुल्या देसाई और माता का नाम पद्‌मावती था । वह बहुत रूपवती थीं । उनका कन्नड, मराठी, उर्दू एवं संस्कृत भाषा पर अधिकार था । उनके पति का नाम मल्ल सर्ज था, जो कित्तूर के राजा थे ।

कित्तूर हीरे-जवाहरात के लिए प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र थे । यह रानी चेनम्मा के समय कर्नाटक क्षेत्र का एक स्वतंत्र राज्य था । राज्य में सुख, समृद्धि, शान्ति व खुशहाली समेत न्याय का शासन स्थापित था । कित्तूर अंग्रेजों के अधीन नहीं था ।

उन्होंने कित्तूर पर आक्रमण किया लेकिन रानी चेनम्मा की वीरता व दृढ़ता तथा अद्भुत रणकौशल क्षमता ने अंग्रेजों के मंसूबों पर पानी फेर दिया । अंग्रेजों की संगठित शक्ति का उन्होंने डटकर मुकाबला किया ।

किले की प्राचीर से सैनिक कार्यवाही का संचालन कर कम्पनी के सैनिकों का सफाया किया । अंग्रेजों के 200 तोपों का उन्होंने सामना किया ओर अंग्रेजों की शक्ति को दबा दिया ।

आपसी विश्वासघात के कारण रानी चेनम्मा को बंदी बना लिया गया । यद्यपि उसकी वीरतापूर्ण कार्य भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत है । फरवरी, 1829 ई. को जेल में रानी चेनम्मा की मृत्यु हो गई ।

6. रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmi Bai):

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म का नाम मनुबाई था । 16 नवम्बर 1835 ई. को उ.प्र. के बनारस में हुआ था । उसके बचपन में लक्ष्मीबाई स्वतंत्रता संग्राम के मौर्य तथा त्याग की प्रतीक थी । उसके पिता का नाम मोरोपन्त व माता का नाम भागीरथी बाई था ।

मनुबाई का बचपन बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ खेल-कूद में बीता । बचपन में ही वह आखेट, अस्त्र-शस्त्र, विद्या, मल्लविद्या, युद्धकला व तैराकी सहित घुड़सवारी में अति पारंगत थीं । सन् 1848 में झाँसी के महाराज गंगाधर राव ने पुत्रभाव में लक्ष्मीबाई को अपनी द्वितीय रानी बनाया ।

विवाहोपरान्त उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई, परन्तु तीन महीने बाद ही बच्चे का देहावसान हो गया । पुत्र शोक ने महाराज को आनन्द राव नामक एक पाँच वर्षीय बालक को गोद लेने पर विवश किया लेकिन महाराज गंगाधर राव शीघ्र ही चल बसे ।

उस समय रानी लक्ष्मीबाई 18 वर्ष की नवयुवती थीं । डलहौजी भारत में हड़पनीति का जन्मदाता था । उसने 1857 में झाँसी राज्य को अंग्रेजी सत्ता में शामिल कर लिया । स्वाभिमानी व राष्ट्रभक्त लक्ष्मीबाई कम्पनी की इस राज्य हड़प नीति की कार्रवाई से आगबबूला हो उठीं ।

गहने व आभूषण बेचकर समर्थक सैनिकों को गोलबंद किया और अंग्रेजी शासन के खिलाफ लोहा लेने का दृढ़ संकल्प कर विद्रोह का बिगुल बजा दिया । सन् 1857 मार्च-अप्रैल-मई में घटित बैरकपुर एवं मेरठ छावनी के सैनिक विद्रोह ने आग में घी का काम किया ।

अंग्रेजी शासन की नींद हराम हो गयी । तात्यां टोपे, नाना साहब व बहादुर शाह जफर समेत राष्ट्रभक्त सैनिकों ने लक्ष्मीबाई का पूरा साथ दिया । लक्ष्मीबाई पुन: झाँसी की रानी घोषित हो गद्दी पर आसीन हुईं ।

इस पराजय के बाद अंग्रेजों द्वारा जनरल ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेजी सना झाँसी के लिए रवाना कर दी गयी । दोनों सेनाओं में युद्ध की विभीषिका इतनी बढ़ गयी कि संघर्ष स्थल पर लाशें ही लाशें नजर आती थीं ।

झाँसी के किले के प्रवेश द्वार के जाँबाज प्रबन्धक व लड़ाका खुदा-बख्श व तोपखाना अधिकारी गुलाम गौस खाँ की जान की बाजी लगानी पड़ी । बारह दिन तक भीषण संग्राम चला । रानी की रणकुशलता अद्वितीय व अति सुदृढ़ थी ।

एक बार पुन: दुलाजी ने विश्वासघात कर अंग्रेजों के साथ डरिफयागिटी की परिणामत: बारूदखाने पर अंग्रेजों द्वारा नियंत्रण स्थापित कर लिया गया । स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए लक्ष्मीबाई कीले से बाहर आकर भीषण युद्ध की । भयंकर खून-खाराबा हुआ ।

कर्नल स्मिथ की सैन्य टुकड़ी उनका पीछा करती रही । रानी घोड़ा बदलकर निर्भीकता से तलवार थामे अंग्रेजों का सिर कलम करती रहीं पर सामने एक नाला आ गया । नया घोड़ा नाला देखकर ज्योंही अड़ा, पीछा करते शत्रु सैनिक पास आ गये ।

एक अंग्रेज सैनिक ने रानी लक्ष्मीबाई के सिर पर तलवार से हमला किया और वह बुरी तरह जख्मी हो गयीं । एक गोली पाँव में भी लगी थी और आँख कटकर बाहर निकल आई थी । जख्मी हालत में भी रानी ने उस अंग्रेज सैनिक का सिर कलम कर दिया, जिसने उन पर वार किया था ।

मरते दम तक वह अंग्रेजों की पकड़ से बाहर रहीं । आजादी होने के समय (1947) तक महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान आहुति डाने का कार्य कर रहा था । लक्ष्मीबाई की मृत्यु के बाद ह्यूरोज ने कहा था- ”वह स्त्रियों में मर्द थी ।”

7. एनी बेसेन्ट (Annie Besant):

श्रीमती ‘एनी बेसेन्ट’ जो इस पवित्र भारत-भूमि पर जन्म न लेने के पश्चात भी, उतनी ही भारतीय थी, जितने हम हैं । शायद वह हमसे भी कहीं अधिक भारतीय थीं, क्योंकि उन्होंने भारत को अपनी मातृभूमि से भी बढ़कर माना ।

तत्कालीन समाज की कुरीतियों को दूर कर, सर्वधर्म समानता का संदेश देकर, सबको एकता के सूत्र में बाँधना ही उनके जीवन का प्रमुख ध्येय था । श्रीमती एनी बेसेन्ट का जन्म लंदन में 1 अक्टूबर 1840 को एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था ।

उनके पिता विलियम पेजबुड लंदन के एक चिकित्सक थे जो अनीश्वरवादी और दार्शनिक विचारधारा को मानने वाले थे, एनी बेसेन्ट की माता आयर लैंड की रहने वाली थी । आयरिश महिला होने के बावजूद उन्होंने भारत और यहाँ के औपनिवेशिक शासन की मुखालफलत की और सच्चे मन से भारतवासियों के कल्याणार्थ कार्य की ।

एनी के पिता लैटिन व ग्रीक आदि कई भाषाओं के जानकार थे । गणित, दर्शनशास्त्र व डाक्टरी के अलावा, अन्य विषयों में भी, उनकी गहरी रुचि थी । एनी ने भी पिता से यही स्वभाव विरासत में पाया । पिता के पुस्तकालय की पुस्तकों ने उनकी ज्ञान-पिपासा को शांत करने में सहायता की, किन्तु पिता की बौद्धिक छत्रछाया शीघ्र ही उनसे छिन गई ।

एनी की माता ने ही उनका पालन-पोषण किया । एनी की शिक्षा में मेरियट नामक शिक्षिका ने पूरा सहयोग किया, उन्होंने पाठ्यक्रम संबंधी शिक्षा के साथ-साथ उन्हें संगीत में भी निपुण बनाया । वह उसे अपने साथ फ्रांस व जर्मनी भी ले गई, जहाँ एनी ने फ्रैंच एवं जर्मन भाषा भी सीख ली ।

मिस मैरिएट के साथ ने, एनी के विचारों में, दृढ़ता उत्पन्न की । वह उससे प्रायः कहतीं- ”एनी ! यदि जीवन में कुछ बनने की इच्छा है, तो सत्य का त्याग कभी मत करना । अपने विचारो के स्वतंत्र प्रवाह में बाधा मत देना । तभी तुम जीवन को सच्चे अर्थों में जी पाओगी ।”

एनी, बेसेण्ट 16 वर्ष की आयु में ही प्रसिद्ध लेखकों की कृतियों का पठन-पठान कर चुकी थी । वह आजीवन मिस मैरिएट की शिक्षाओं के लिए कृतज्ञ बनी रहीं । आध्यात्मिक पुस्तकों के अध्ययन से उनमें आध्यात्मिक मूल्यों का पर्याप्त विकास हुआ ।

अपने इसी विश्वास व करुणा को, व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए, एनी ने चर्च के पादरी को जीवनसाथी के रूप में चुना । उनका यह चयन, गृहस्थ जीवन के भोग-विलास के लिए नहीं, अपितु पादरी, पति के साथ मिलकर लोक-कल्याण करना था ।

रूढ़िवादी मिस्टर फ्रेंक बेर्सेट के साथ एनी, बेसेंट की शादी हुई, जो सफल नहीं रही । उनकी नजरों में, पत्नी केवल एक वस्तु थी, जिस पर पति का स्वामित्व रहता है । एनी शीघ्र ही जान गईं कि उनका चयन ठीक नहीं था । पति से विमुख-हृदय, पुस्तकों की ओर सहज रूप से आकर्षित हो गया ओर उन्होंने लेखनी शुरू कर दी ।

साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के कारण वे शीघ्र ही चर्चित हो गई । उन्होंने इन्हीं दिनों एक पुस्तक का संपादन भी किया । एनी के नीरस जीवन में उत्साह का संचार हुआ, किन्तु उनके पति को यह रास नहीं आया ।

उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा- ”तुम्हारी प्रत्येक वस्तु, यहाँ तक कि लेख के पारिश्रमिक पर भी, मेरा पूरा अधिकार है ।” फ्रेंक के ये शब्द एनी की अन्तरात्मा की झकझोर दिए । एनी को अपने गलत निर्णय पर पश्चाताप हुआ ।

इसी बीच उनके गर्भ से एक पुत्र व पुत्री का जन्म हो चुका था । चार्ल्स ब्रेडले निरीश्वरवादी मानव समाज में व्याप्त अंधविश्वासों का कट्टर विरोधी था कुछ समय के लिए एनी चार्ल्स ब्रेडले के सम्पर्क में आई थी ।

फ्रेंक और एनी के बीच विवाद गहराता जा रहा था । प्रिय पुत्री मेबल भी बीमार थी । दिन-प्रतिदिन असहनीय दुखी व कटुताओं ने एनी को यह सोचने पर विवश कर दिया- ”क्या प्रभु अपने सच्चे भक्तों को ऐसा दु:ख देता है ?”

एनी बेसेण्ट का झुकाव नास्तिकवाद की ओर हो गया । पति ने उनके व चार्ल्स के प्रति कुप्रचार में कोई कमी न रखी । उसे यह बिल्कुल गवारा न था कि एक पादरी की पत्नी ईसाई धर्म में आस्था न रखे ।

एनी की आस्तिकतावादी विचारधारा इस समय नष्ट हो चुकी थी । उन्होंने किसी भी प्रकार के आडंबर व असत्य का पक्ष न लेते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा- ”मैं प्रभु की सत्ता पर विश्वास नहीं रखती” फ्रैंक ने, उनकी परिस्थितिजन्य मानसिकता को न समझते हुए, विवाह-विच्छेद का निर्णय ले लिया ।

फ्रैंक ने पुत्र को अपने पास रख लिया । तलाक के पश्चात पुत्री मेबल ही एनी के जीवन का संबल थी । एनी की माता भी पुत्री के इन दु:खों को देखने के लिए अधिक समय तक जीवित नहीं रही ।

विषय परिस्थितियों में भी साहित्य लेखन तथा पारिवारिक पोषण वे करती रहीं । एनि बेसेण्ट ईसाई धर्म में व्याप्त कुरीतियों को साहित्य के माध्यम से विरोध करती है । समाचार पत्रों में उनके विरुद्ध आलोचनात्मक लेख छपने लगे ।

रूढ़िवादी व धर्मांध व्यक्तियों ने उन पर मुकदमा ठोक दिया । उनकी पुत्री को भी उनके पति ने छीन लिया । यह उनके लिए किसी तुषरापात से कम नहीं था । एनी के जीवन में अब चारों ओर निराशा ही निराशा थी, पर उन्होंने झुकना नहीं सीखा था ।

उन्होंने एक बहुत बड़े दल का संगठन किया । उस संगठन ने स्पष्ट रूप से कहा कि संसद सदस्यों के लिए ईश्वर की शपथ लेना आवश्यक नहीं है । एनी बेसेण्ट की विचारधारा तर्क संगत हुआ करते थे जिससे स्रोता जल्दी प्रभावित हो जाते थे । सन् 1882 ई. में मैड्‌म ब्लैवैत्सकी से मुलाकात होने पर उनमें फिर से अध्यात्म की ओर झुकाव हुआ ।

इधर भारत के विषय में भी एनी की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी । जाने ऐसा कौन सा अदृश्य सूत्र था, जो उन्हें बार-बार भारत की ओर खींच रहा था । थियोसोफिकल सोसाइटी में सम्मिलित होने के बाद वे सन् 1893 में भारत आईं ।

यहाँ उन्होंने मद्रास के समीप, अडयार में थियोसोफिकल सोसाइटी का मुख्य केन्द्र स्थापित किया ।

भारत-प्रवास में एनी ने, अनेक हिन्दू धर्मग्रन्थों का अध्ययन मनन किया । उनकी पुस्तकों में, पश्चिमवासियों ने, भारत की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, पवित्रता व महानता का परिचय पाया भारतीय ग्रंथों का अध्ययन कर एनी बेसेण्ट ने स्वीकृत किया कि उनकी धारणाएँ (भारतीय दर्शन) बिल्कुल गलत थी ।

एनी बेसेण्ट ने गीता का अंग्रेजी अनुवाद किया वे भारतीय दर्शन तथा संस्कृति दर्शन से काफी प्रभावित थी । धीरे-धीरे उनका रुझान भारत की सामाजिक अवस्था तथा राजनीति की ओर भी होने लगा । भारत में धर्म व शिक्षा के क्षेत्र में, उनका योगदान उल्लेखनीय रहा ।

उन्होंने काशी में ‘सेण्ट्रल हिंदू स्कूल’ की स्थापना की । बाद में, इसी स्कूल ने, कॉलेज और फिर ‘हिंदू विश्वविद्यालय’ की मान्यता पाई । भारत की स्वतंत्रता से उन्हें इतना लगाव था कि जब उन्होंने भारत को, अंग्रेजों की कैद में छटपटाते देखा, तो वे भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ीं ।

उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए, मद्रास से ‘न्यू इण्डिया’ नामक दैनिक समाचार पत्र निकालना आरंभ कर दिया । उन्होंने कांग्रेस के लिए भी काम करने का बीड़ा नरम तथा गरम दल के मतभेदों के समाधान हेतु एनी बेसेण्ट ने काफी सहयोग किया ।

सन् 1916 के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में, दोनों दलों को मिलाने के कारण उनकी अत्यधिक प्रशंसा हुई । स्वतंत्रता के आन्दोलनकारियों में, शीघ्र ही उनका नाम भी जुड़ गया । सन् 1917 के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में एनी बेसेन्ट सभापति चुनी गईं ।

उन्हीं दिनों होमरूल लीग की स्थापना हुई । पूरे भारतवर्ष में इस लीग की शाखाएँ थीं । स्वयं लोकमान्य तिलक ने भी होमरूल लीग का समर्थन किया । एनी बेसेन्ट स्वतंत्रता आंदोलन को देश के सभी भागो तक पहुंचाने के पक्ष में थीं ।

इसके लिए उन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों का दौरा किया और लोगों के मन-प्राण में एक ही मंत्र फूँक दिया- हम आजादी चाहते हैं, जिसे हम किसी भी कीमत पर ले कर ही रहेंगे । उनके इन प्रयासों की भनक, अंग्रेज सरकार के कानों तक पहुँच चुकी थी । भला सरकार यह कैसे सह सकती थी, कि एनी भारतवासियों को उनके विरुद्ध भड़काएँ सबसे पहले तो एनी के दैनिक पत्र की जमानत जब्त कर ली गई ।

फिर कई क्षेत्रों में उनके जाने पर पाबंदी लगा दी गई । परंतु जब वे अपने निर्णय पर अडिग रहीं तो उन्हें बंदी बना लिया गया । उनके बंदी बनने की बात, शीघ्र ही चारों ओर फैल गई । जनता ने कड़े शब्दों में इस गिरफ्तारी का प्रतिवाद किया ।

एनी बेसेण्ट की गिरफ्तारी के खिलाफ आंदोलन के समक्ष सरकार को झुकना पड़ा, सभी को जेल से मुक्त कर दिया गया । ब्रिटिश संसद द्वारा भारत को औपनिवेशिक स्वराज देने की मांग की गई ।

कुछ वर्षों पश्चात कांग्रेस से मतभेद के बाद भी वह अपने तरीके से भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करती रहीं । जीवन में बहुत से अवसर ऐसे आए, जब उन्हें तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा, परंतु रानी अपने ध्येय पर अटल रहीं ।

अस्सी वर्ष की आयु में राजनीति से सन्यास ले लिया । लेकिन थियोसोफिकल सोसाइटी का नेतृत्व करती रही । भारत में जन्म न लेने के बाद भी भारत माँ की बेटी कहलाई । अत: 87 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई ।

8. भीकाजी कामा (Bhikaji Kama):

भीकाजी कामा ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को विदेशों में प्रचारित किया । भीकाजी कामा का जन्म 24 सितम्बर, 1861 को मुम्बई में हुआ था । उनके पिता का नाम सोराबजी पटेल था ।

सन् 1885 में जब एलन औक्टेवियन ने कांग्रेस की स्थापना की तो भीकाजी ने इसकी सदस्यता ग्रहण की और जीवनपर्यन्त राजनीति से जुड़ी रहीं । काँग्रेस के प्रथम अधिवेशन में दिये गये नेताओं के भाषण से वह इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने अपने आपको काँग्रेस के प्रति समर्पित कर दिया ।

सन् 1985 में उनका विवाह रुस्तमजी कामा के साथ हुआ । विवाह के बाद भी वह सामाजिक व राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहीं । भीका जी कामा विद्वान तथा क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थी । भारतीयों में देशभक्ति का जोश पैदा करने हेतु वह स्कॉटलैण्ड तथा फ्रांस की यात्राएं की ।

इससे ब्रिटिश सरकार परेशान थी । अन्तर्राष्ट्री समाजवादी सम्मेलन में राष्ट्रीय ध्वज फहराने वाली भीका जी प्रथम भारतीय महिला थी । यह सम्मेलन जर्मनी के स्ट्रटगार्ड नगर में सन् 1907 में हुआ था ।

वह एक कुशल वक्ता थीं । सम्मेलन में दिया गया उनका ओजस्वी भाषण इतना प्रभावकारी था कि ब्रिटिश सरकार सकते में आ गयी । सन् 1908 में अमेरिका से वापस आने के बाद भीकाजी कामा ने कहा कि ब्रिटिश सरकार भारत की दशा को पूरी तरह चौपट करने पर लगी है ।

उन्होंने न्यूयार्क में एक प्रेस-सम्मेलन बुलाकर भारतीय स्वराज्य की पुरजोर वकालत करते हुए ब्रिटिश सरकार से स्वतन्त्रता की मांग दुहराई । भारतीयों द्वारा किए जा रहे स्वतंत्रता आंदोलन की कार्यवाहियों तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा किए जा रहे दमनात्मक तरीके को पत्रकारों को बतलाया ।

लन्दन के इण्डिया हाउस में भी उन्होंने एक सभा को संबोधित किया । पेरिस की जनसभा में भी ब्रिटिश साम्राज्य की क्रूरता का खाका खींचा और जुल्म से सम्बन्धित चित्र प्रदर्शित किया । उनके इन कार्यों का ब्रिटिश सरकार ने विरोध किया और उनके इंग्लैण्ड व भारत प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिए ।

ब्रिटिश सरकार ने फ्रांस सरकार से उन्हें पेरिस में शरण न देने और कामा को इंग्लैण्ड के हाथों सौंप देने की मांग की । पर फ्रांस सरकार ने भीकाजी कामा को पेरिस में शरण देकर ब्रिटिश-प्रस्ताव को नकार दिया ।

भीका जी सन् 1909 ई. में ‘वन्देमातरम्’ पत्रिका का सम्पादन एवं प्रकाशन आरम्भ किया । निर्वासित जीवन के 35 वर्ष बाद, 13 अगस्त, 1936 ई. को मुम्बई में उनकी मृत्यु हो गई । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान महत्वपूर्ण है ।

9. सिस्टर निवेदिता (Sister Nivedita):

निवेदिता का जन्म 28 अकबर, 1867 ई. में आयरलैण्ड के डेंगानेन में हुआ था । उनकी माता मेरी तथा पिता सैमुअल रिचमंड नौबॅल थे । निवेदिता के बचपन का नाम माग्रेट था, वह तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी । 17 वर्ष की आयु से ही वह अध्यापन कार्य करती रहीं ।

आयरलैंड तथा इंग्लैंड के विभिन्न विद्यालयों में उन्होंने अध्यापन का कार्य किया । अंतत: उन्होंने 1892 में विंबलडन में अपने विद्यालय की शुरुआत की । वह एक अच्छी पत्रकार तथा वक्ता थीं । उन्होंने सेसमि क्लब में दाखिला लिया, जहां उनकी मुलाकात अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि र्जार्ज बर्नार्ड शॉ और टॉमस हक्सले से हुई ।

1895 में जब स्वामी जी इंग्लैंड की यात्रा पर थे तो इनकी मुलाकात मार्ग्रेट से हुई थी । इनकी शालीनता व कम निष्ठा को देखकर ही विवेकानन्द मार्ग्रेट नाम से सिस्टर निवेदिता रखा । सिस्टर निवेदिता स्वामी विवेकानन्द की शिष्या थीं ।

उन्होंने स्वामी जी के साथ रामकृष्ण परमहंस के आध्यात्मिक विचारों का प्रसार किया । सिस्टर निवेदिता एक शिक्षिका के रूप में भारत आई थीं, ताकि विवेकानन्द की स्त्री-शिक्षा की योजनाओं को मूर्त किया जा सके ।

सिस्टर निवेदिता ने पश्चिमी विचारों को भारतीय परम्परा के अनुकूल बनाने के प्रयास किए । यह कार्य कलकत्ता के एक स्कूल से आरंभ किया । लेकिन धन एकत्रीकरण हेतु स्कूल बंदकर पश्चिम देशों की यात्रा पर निकल गई ।

1902 में लौटकर उन्होंने फिर से स्कूल की शुरुआत की । 1903 में निवेदिता ने आधारभूत शिक्षा के साथ-साथ महिलाओं को कला व शिल्प का प्रशिक्षण देने के लिए एक महिला खंड भी खोला । उनके स्कूल ने शिक्षण और प्रशिक्षण जारी रखा ।

अपने स्वास्थ्य और आराम की परवाह किए बिना वह निर्धनों की सेवा करती थीं । बंगाल में लेगा, अकाल और बाढ़ के दौरान उनकी नि:स्वार्थ सेवा को बहुत सराहा गया । रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें ”माता” की संज्ञा दी ।

धीरे-धीरे निवेदिता का ध्यान भारत की राजनीतिक मुक्ति की और गया । रामकृष्ण संघ राजनीति से परे शुद्ध आध्यात्मिक तथा मानकतावादी कार्यों में रत था । इसी कारण से निवेदिता विवेकानन्द की मृत्यु के बाद संघ से बाहर निकल गई ।

भारतीय नेताओं द्वारा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने की कोशिशों को ब्रिटिश सरकार द्वारा कुचले जाने से उन्हें बहुत नाराजगी थी । वह भारतीय दर्शन संस्कृति व परपरा से बहुत प्रभावित थीं ।

निवेदिता ने प्रत्यक्ष रूप से कभी किसी आंदोलन में भाग नहीं लिया, लेकिन उन्होंने भारतीय युवाओं को प्रेरित किया, जो उन्हें रूमानी राष्ट्रीयता और प्रबल भारतीयता का दर्शनशास्त्री मानते थे ।

निवेदिता वेदांत दर्शन, विवेकानन्द की मीमांसा और सार्वभौम सिद्धांतों से प्रभावित थी । उन्होंने विवेकानन्द को 1896 में उनकी इंग्लैंड से रवानगी से पहले ही अपना गुरु स्वीकार कर लिया । जनवरी, 1898 में भारत आने से पहले तक वह इंग्लैंड में वेदांत आंदोलन के लिए काम करती रहीं ।

भारतीयों के साथ गहन सम्पर्क ने ‘सिस्टर’ को पूज्य भावना के साथ श्रद्धापूर्ण प्रशंसा एवं प्रेम दिया । अंतत: दार्जिलिंग में 11 अक्टूबर 1911 ई. को निवेदिता की मृत्यु हो गई ।

उनकी समाधि पर अंकित यह वाक्य कि- ‘यहां सिस्टर निवेदिता का अस्थि कलश विश्राम कर रहा है, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत को दे दिया ।’ आज भी प्रत्येक भारतीय के रोम-रोम को पुलकित करता है । सिस्टर निवेदिता को भारतीय संस्कृति, धर्म, समाज से प्राकृतिक लगाव था ।

10. कस्तुरबा गाँधी (Kasturba Gandhi):

कस्तुरबा गाँधी का जन्म काठियावाड़ (गुजरात) के पोरबंदर नगर में सन् 1868 ई. में हुआ था । वह गाँधी जी द्वारा अनुमोदित असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया । कस्तुरबा के पिता का नाम मानकजी और माता का नाम ब्रजकुंवरि था ।

वह राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की अभिन्न सहयोगी, सहधर्मी, सहनेत्री, निजी सहायक समेत अर्धांगिनी भी थीं । उनका विवाह तेरह वर्ष की आयु में महात्मा गाँधी के साथ हुआ । वह गाँधी जी से उम्र में एक वर्ष बड़ी थीं ।

स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने सन् 1920, 1922, 1930, 1932 व 1942 में भाग लिया । विभिन्न धरना, जुलूसों व प्रदर्शनों का नेतृत्व किया । इसके लिए उन्होंने शारीरिक कष्टों की परवाह किए बिना खुशी-खुशी जेल की सजा भोगी ।

वह एक श्रमशील, उदार, सहनशील, धैर्यवान व राष्ट्रभक्त समेत धर्मभीरू महिला थीं । ईश्वरभक्ति, अतिथि सेवा व राष्ट्रीयता उनमें कूट-कूटकर भरी पड़ी थी । साबरमती आश्रम में उन्होंने बगैर भेदभाव किए । दिन-रात कार्यकर्ताओं समेत असहायों व पीड़ितों की पवित्र भाव से सेवा की ।

कस्तुरबा गाँधी की मृत्यु आगा खाँ महल में 22 फरवरी, 1944 ई. को हो गई । राष्ट्र ने कस्तुरबा गाँधी को राष्ट्रमाता की उपधि से सम्मानित किया । उन्हें ‘बा’ के नाम से पुकारा जाता था ।

11. सरोजिनी नायडू (Sarojini Naidu):

सरोजिनी नायडू बहुत सहृदय एवं दयालु महिला थी । भारत कोकिला सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी, 1879 को हैदराबाद में हुआ था । इनके पिता का नाम अघोरनाथ था । वे निजाम कालेज के संस्थापक थे । सरोजिनी की माता का नाम वरदा सुंदरी था ।

वह कविता लिखने में निपुण थीं अत: उनकी विद्धता का गुण सरोजिनी नायडू की विरासत में मिला था । उन्होंने भारतीय स्त्री को, उसकी सुप्त मानसिक शक्तियों से परिचित कराया व जीने की नई राह दिखाई । सरोजिनी जी के प्रेरणादायक भाषण तथा मधुर कविताओं के बोल भारतीय के मानस पठल पर आज भी गुँजायमान है ।

ब्रिटिश शासन स्थापित होने के बाद भारत में अंग्रेजी भाषा का अध्ययन हर उच्च शिक्षित व्यक्ति के लिए जरूरी हो गया, जबकि सरोजिनी को अंग्रेजी विषय से अरुचि थी ।

अंग्रेजी पढ़ने का समय आते ही वह प्रतिदिन नए बहाने बनाने लगतीं । अंग्रेजी विषय के प्रति इस उदासीनता को, पिता ने भांप लिया एवं कस कर डॉट लगाई । नन्हीं बालिका को कमरे में बंद कर दिया गया ।

कुछ समय पश्चात कमरा खोला, तो सरोजिनी भीतर से हंसते हुए बाहर आईं और पिता से कहा- ”मैं आज के बाद अंग्रेजी भाषा से मुँह नहीं मोडूंगी । मुझे तो आपकी तरह विद्वान बनना है । यदि अंग्रेजी न पढ़ी गई तो मुझे अपना लक्ष्य पाने में बाधा आ सकती है ।”

नन्हीं सरोजिनी ने अपना कहा सच कर दिखाया । कुछ ही समय में वह अंग्रेजी भाषा में निष्णात हो गई । सरोजिनी नायडू बचपन से ही कविता के प्रति ज्यादा आकर्षित थी । हालांकि उनके पिता गणित के अभ्यास करना चाहते थे ताकि वह गणिताचार्य बने ।

सरोजिनी ने अपनी माता वरदा सुंदरी से कविता लिखने की प्रेरणा ली । पुत्री को अंग्रेजी भाषा में प्रवीण करने की पिता की इच्छा को सरोजिनी ने पूरा कर दिखाया । सरोजिनी, अंग्रेजी के महान कवियों की रचनाओं का अध्ययन करने लगीं ।

तेरह वर्ष की छोटी आयु में ही उन्होंने तेरह सौ पंक्तियों की लंबी कविता की रचना की । चिकित्सक द्वारा सरोजिनी को अस्वस्थ करने पर उन्होंने दो हजार पंक्तियों का नाटक लिखकर अपनी निरोग होने का परिचय दिया ।

इस घटना के पश्चात तो, सभी ने निर्विवाद रूप से मान लिया कि सरोजिनी, सरस्वती की मानसपुत्री हैं । सरोजिनी नायडू की साहित्यिक प्रतिमा इस समय तक काफी विकसित हो चुकी थी । सरोजनी की शैक्षणिक प्रतिभा से उत्सुक होकर पिता ने पुत्री की उत्साह बढ़ाने हेतु नाटक को प्रकाशित करवाकर मित्रों में बँटवाया । हैदराबाद के निजाम को भी एक प्रति भेंट की गई ।

निजाम साहब उस नाटक को पढ़कर काफी प्रभावित हुए और सरोजिनी को विदेश में साहित्य अध्ययन हेतु छात्रवृत्ति प्रदान की । इस प्रकार सरोजिनी ने, अपनी प्रतिभा के बल पर, विदेश में जाकर पढ़ने का अवसर प्राप्त कर लिया ।

सरोजिनी के घर, डाक्टर गोविन्द राजुल नायडू प्रायः आया करते थे । वह सरोजिनी की बहुमुखी प्रतिभा के कायल हो गए । उन्होंने सरोजिनी के पिता से निवेदन किया- ”महाशय मैं आपकी पुत्री से विवाह करने का इच्छुक हूँ ।”

उनका वाक्य समाप्त होते ही पूरे कमरे में खलबली मच गई । उस समय अंतर्जातीय विवाह की बात इतनी आसान नहीं थी । सरोजिनी, बंगाली ब्राह्मण परिवार की पुत्री थीं तथा डॉ. नायडू आंध्र के अब्राह्मण थे ।

सरोजिनी की आयु भी अधिक न थी माता-पिता ने नायडू जी को विदा किया व पुत्री के विदेश जाने की तैयारियों में जुट गए । अठारह वर्ष की कम आयु होने के कारण सरोजिनी को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल पाया ।

ऐसी स्थिति में वह लंदन के किंग्स कॉलेज में भर्ती हो गईं । उनकी संरक्षिका के घर अनेक साहित्यकारों का आना-जाना था । यहीं सरोजिनी की भेंट प्रसिद्ध आलोचना गोसे से हुई । गोसे ने उनकी काव्यकृतियों का अवलोकन कर सरोजिनी से आत्मीयता से कहा तुम एक प्रतिभाशाली भारतीय कन्या हो ।

यह सत्य है कि तुमने पश्चिमी भाषा व काव्य में दक्षता पाई है, किन्तु यदि तुम अपनी रचनाओं में भारत की आत्मा के दर्शन करवा सको, तो हमें अधिक प्रसन्नता होगी । महान् आलोचक गोर्स की अनुशंसा पर सरोजिनी नायडू ने अपनी काव्य सृजन कला को नई दिशा एवं आशाएँ से पूर्ण कर दिया ।

स्वास्थ्य समस्या के कारण सरोजिनी कुछ समय स्विटजरलैंड तथा इटली में बिताया । इस दौरान उन्हें बहुत अनुभव प्राप्त किए । देश लौटने पर उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह किया । इस विवाह ने तथाकथित समाज की नींद हराम कर दी ।

सर्वत्र इस विवाह की निंदा हुई । माता-पिता का भी विचार था कि यह अपारंपरिक, बेमेल विवाह सरोजिनी के कष्टों का कारण बन जायेगा, किन्तु सरोजिनी के सुखमय विवाहित जीवन ने कुछ ही समय में उनकी शंका का समाधान कर दिया ।

विवाह के बाद भी वे साहित्यिक साधना में लगी रहीं । उन्होंने अपने सौंदर्य प्रेमी हृदय से प्रकृति के अभिराम दृश्यों को इस प्रकार शब्दों में बाधा कि चारों ओर प्रकृति की अनुपम छटा के दर्शन होते । उनकी कविता में भावों का किया गया निरूपण सचमुच कविता में दृश्य स्फूर्ति है ।

सरोजिनी कृत कविताओं में कोयल, मोर, नीम, अशोक वृक्ष आदि सगे संबंधियों की तरह प्रतीत होते दिखते हैं । प्रेम व कल्पना के सुन्दर रंगों से सजी कविताओं में, भावुकता के स्वर पाठकों को मुग्ध कर देते ।

उनकी कविताओं का सबसे बड़ा गुण था- ‘गेयता’ । स्वयं कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनके लिए कहा था- “आपकी रचनाओं की गेयता व सौजन्य देख कर, मुझमें आपके प्रति ईर्ष्या जागती है ।”

सरोजिनी जी की कविता न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी चर्चित रही । काल पक्षी, टूटा हुआ डैना, जीवन तथा मृत्यु मुख्य काव्य कृतियाँ है । उनकी बहुआयामी व्यक्तित्व की जानकारी तब मिली, जब वह राष्ट्रीय विचारधारा से एकाकार होकर, देश की सेवा में जुट गईं ।

सरोजिनी के करूणावान हृदय हैदराबाद की बाढ़ को देखकर विगलित हो गया । उनका दाम्पत्य जीवन सहयोगात्मक था । डॉ. साहब अनाथ व गरीब मरीजों की चिकित्सा करने लगे व सरोजिनी जी-जान से चंदा एकत्र कर उनकी सहायता करने लगीं ।

धीरे-धीरे, इन निर्बल अनाथ स्त्री-पुरुषों की मुस्कुराहट में ही उन्हें जीवन का सच्चा आनंद आने लगा । समाजसेवी ही उनके जीवन का प्रमुख ध्येय बन गई । वह ग्रामीण स्त्रियों को स्वास्थ्य व सफाई का महत्व समझातीं । अंधविश्वासी तथा रूढ़िवादी विचारों का वे समर्थन नहीं करती थीं ।

ग्रामीण महिलाएं, एक उच्च शिक्षित व संभ्रान्त महिला को अपने निकट पाकर फूली न समातीं । सरोजिनी जी के सेवा ने गरीबों के मन-मस्तिष्क में देवी का रूप बना दिया । सरोजिनी नायडू के विचारों से गोपाल कृष्ण गोखले भी काफी प्रभावित थे ।

उन्हें सरोजिनी के भीतर, निरंतर कर्मरत देशप्रेमी आत्मा का दर्शन हुआ और उन्होंने कहा- ”तुम इस तारों से जड़े आकाश व ऊंची पर्वतमालाओं को साक्षी रख कर, अपनी प्रतिभा, अपना जीवन, अपनी कविता, अपने विचार, वाणी व जीवन आदर्श मातृभूमि के चरणों पर अर्पित कर दो । तुम्हारी वाणी, सुप्त मानस को जागृत करने की क्षमता रखती है । तुम अपनी उसी शक्ति के बल पर, भारत की सेवा करो । भारतीय ग्रामीणों व स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा ही तुम्हारा ध्येय हो । तुम उनके जीवन में अपनी अमृतमयी वाणी द्वारा, निराशा का अंधकार मिटाकर, प्रकाश की उज्ज्वल किरणें बिखेर दो ।”

स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने हेतु आत्मशक्ति का संचार गोपाल कृष्ण गोखलें के प्रभाववश हुआ । गोखले के वे शिष्या बन गई । महात्मा गाँधी जी से भेंट और ज्यादा फलदायी रही । सरोजिनी की काव्य चेतना में प्रखरता थी । इसमें अनमनरुक्यता को स्थान ही नहीं था ।

वह स्वयं सुधा की उपासिका थीं । उनके व्याख्यान का एक-एक शब्द, उनके हृदय की भीतरी गहराइयों से निकलता था । मद्रास में उनके दिए गए व्याख्यानों ने, क्रांति का आह्वान किया । वह कांग्रेस की सदस्या बन गईं । उन्होंने स्त्रियों के अधिकारों के लिए जनमत जागृत किया ।

सन 1918 में उन्होंने स्त्रियों के मताधिकार के लिए, बिल भी प्रस्तुत किया । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक वार्षिक अधिवेशन में, उन्होंने कहा कि- ”मैं एक महिला हूँ । इसी नाते आपसे कहना चाहती हूँ कि जब कभी आप संकट में होंगे अथवा अँधेरे में मार्ग ढूंढ़ रहे होंगे, जब कभी आप लक्ष्य को महानता बनाए रखने के लिए, सच्चे नेताओं की आवश्यकता अनुभव करेंगे व जब कभी आप अपने भीतर आत्मविश्वास की कमी पाएंगे, हम भारतीय महिलाएँ आपकी शक्ति को अक्षुष्ण बनाए रखने के लिए आपके साथ होंगी…”

सरोजिनी नायडू का हृदया सहृदयता, उदारता के साथ ही निडरता से भी थी । इसलिए किसी तरह की प्रतिक्रिया भयमुक्त होकर देती थी । सरोजिनी नायडू ने ब्रिटिश सरकार के अन्यायपूर्ण कार्यों का स्पष्टता से सदैव विरोध किया ।

1919 में हुए जालियांवाला बाग हत्याकांड की हृदय विदारक घटना की उन्होंने खुल कर भर्त्सना की । वह उसी वर्ष ‘होमरूल लीग’ के प्रतिनिधिमंडल का सदस्य बनकर लंदन गईं । वहाँ के किंग्सवे हाल में उन्होंने जालियांवाला बाग की घटना को निर्भयता से सुनाया जिसे सुनकर श्रोता दंग रह गए ।

समाचारपत्रों द्वारा छिपाये गए तथ्यों को भी उन्होंने उद्घाटित किया । सरोजिनी ने अंग्रेज सरकार की दोहरी नीतियों की पोल खोल दी थी । श्रीमती नायडू को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1925 के अधिवेशन की अध्यक्षा बनाई गई ।

उन्होंने अपने मधुर स्वर में समस्त देशवासियों को संबोधित कर कहा- ”आओ सिपाहियों ! मैं तो केवल एक नारी हूँ, कवि हूँ । अत: मैं ही आपको श्रद्धा, साहस व सहनशक्ति का संबल प्रदान करूंगी ।”

भारत के तत्कालीन राजनीतिक घटनाओं, इतिहास तथा समाज के बारे में 1928 की अमरीका यात्रा के दौरान महत्वपूर्ण भाषण दिए । वहाँ के निवासियों की दृष्टि में, भारत एक पिछड़ा हुआ, गरीब व रूढ़िवादी देश था ।

सरोजिनी ने उनकी भ्रांति का निराकरण किया व उन्हें भारत की महान गरिमामयी संस्कृति से परिचित करवाया । सन् 1930 में सरोजिनी ने नमक सत्याग्रह में भी भाग लिया ।

दांडी यात्रा के पश्चात जब बापू जी बंदी बना लिए गए तो सरोजिनी ने स्वेच्छा से इस आन्दोलन का नेतृत्व सँभाला । स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता के लिए उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा । सरोजिनी जी प्राकृतिक तथा नैसर्गिक सौंदर्य की उपासिका थीं ।

उनकी इस प्रवृत्ति के संदर्भ में यह बता देना समीचीन होगा कि जब वह नरवदा जेल में थीं तब एक ऐसा प्रसंग उत्पन्न हुआ, जिसने जेलर महोदय को भी अचरज में डाल दिया । हुआ यूँ कि जेल में उन्होंने कच्ची मिट्टी में, कुछ फूलों के पौधे लगा रखे थे ।

जब उन पौधों की कलियों के खिलने का समय आया तो उनके रिहा होने का समय आ पहुँचा । सरोजिनी ने जेलर से निवेदन किया कि- ”महोदय ! क्या मैं इन फूलों के खिलने तक जेल में, रह सकती हूँ । मैं अपने हाथों से रोपे गए पौधों पर, खिलते फूल देखना चाहती हूँ ।”

सरोजिनी के इन शब्दों को सुनकर जेलर महोदय निरुत्तर हो उठे । उनके कार्यकाल में शायद ऐसा पहला अवसर था, जब कैदी अपने दण्ड की अवधि बढ़ाने की विनती कर रहा था ।

गोलमेज सम्मेलन में भाग लेकर सरोजिनी नायडू ने गाँधी जी को भरतपूर साथ दिया । सन 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन चलाया गया । सरोजिनी भी इस आंदोलन में सम्मिलित हुईं व उन्हें जेल जाना पड़ा । इस दौरान बापू, महादेव भाई व मीरा बहन को भी बंदी बना लिया गया ।

सभी कैदियों को आगा खाँ महल में रखा गया था । सन् 1943 में बापू ने, इक्कीस दिन का अनशन व्रत आरंभ किया । सरोजिनी ने बापू जी की टिन-रात सेवा की, जिसके फलस्वरूप वह स्वयं बीमार पड़ गईं, तब उन्हें मुक्त कर दिया गया ।

स्वतंत्र भारत अर्थात 15 अगस्त 1947 को सरोजनी जी ने विभाजन का दुःख व आजादी का जश्न संजोये दिल्ली के आकशवासी केन्द्र से देशवासियों को स्वतंत्रता की बधाईयाँ दी, उन्हें ‘प्रथम महिला राज्यपाल’ का पद सौंपा गया । उनके दायित्व बढ़ गए, किंतु अधिक अनुभव न होते हुए भी, उन्होंने इस पद के दायित्वों का भली-भांति निर्वाह किया ।

उनका मूल्यांकन साहित्यकार, राजनीतिज्ञ तथा प्रकृति प्रेमी के रूप में यदि एक साथ किया जाये तो कोई आश्चर्य नहीं है । जिस तरह से सूर्य उदयाचल तथा अस्ताचल में समान सिंधुर वर्ण का होता है, उसी तरह सरोजिनी के भाव सदैव सुख-दुःख में समान रूपों में होते थे ।

बड़े से बड़े दु:ख व बाधाओं के बीच मुस्कुराना, उनका स्वभाव था । विनोदप्रिय सरोजिनी में ही इतना दम था कि वह अपने प्रिय बापू को ‘मिकी माउस’ कह सकें । संभवत: वह गाँधी जी के बड़े-बड़े कानों के कारण, उन्हें इस नाम से सम्बोधित करतीं थीं ।

सरोजिनी विनोदप्रियता का कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं देती थीं । फिर चाह व्यंग्य, स्वयं उन पर ही क्यों न हो । स्वतंत्रता के बाद 70 वर्ष की आयु में 2 मार्च 1949 ई. को प्रात:काल उनका देहावसान हो गया ।

12. कमला नेहरू (Kamala Nehru):

कमला नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की पत्नी थी । उनका विवाह सन् 1916 में पं.जवाहर लाल नेहरू के साथ हुआ । उन्होंने 17 नवंबर 1917 को एक पुत्री को जन्म दिया और डस पुत्री का नाम इंदिरा गाँधी रखा जो भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनीं ।

श्रीमती कमला नेहरू राष्ट्रीय स्वराज्य आन्दोलन की एक निर्भीक, कर्मठ, दृढ़निश्चयी व साहसी सेनानी थीं । कमला नेहरू का संबंध एक ऐसे परिवार से था जिसका हर सदस्य भारत को स्वतंत्र और समृद्ध देखना चाहता है । दंश की स्वतंत्रता एवं विकास पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले महान देश भक्त की पत्नी होने के कारण कमला नेहरू स्वयं को देश सेवा से अलग नहीं रख सकती थी ।

स्वतंत्रता आन्दोलन में कमला नेहरु का अप्रत्यक्ष योगदान काफी सराहनीय रहा । जिला कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कांग्रेस व राष्ट्र की समर्पित भाव से सेवा की । उन्होंने महिला कल्याण, नारी शिक्षा व नारी जागरण के लिए भी अथक प्रयास किए । महिला जुलूसों का नेतृत्व करते समय कई बार जेल जाना पड़ा क्षय रोग के कारण 28 फरवरी, 1936 ई. को मृत्यु हो गई ।

13. अरुणा आसफ अली (Aruna Asif Ali):

राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय योगदान देने वाली महान स्वतंत्रता सेनानी अरुणा आसफ अली का जन्म सन् 1909 में एक सम्भ्रान्त, सम्मानित तथा सांस्कारिक बंगाली परिवार में हुआ था । उनके बचपन का नाम अरुणा गांगुली था । उनके पति एम. आसफ अली एक प्रसिद्ध वकील थे ।

उनका विवाह 1928 में हुआ । शादी के बाद अरुणा गांगुली से वह अरुणा आसफ अली बन गईं । अरूणा आसफ अली हिन्दु-मुस्लिम एकता की संवाहिका के साथ ही समन्यवादी विचारधारा के पोषक थी ।

उनकी प्रारम्भिक शिक्षा लाहौर तथा उच्च शिक्षा नैनीताल पब्लिक स्कूल से ग्रहण की थी । शिक्षा पूरी करने के पश्चात् वह गोखले मेमोरियल गर्ल्स स्कूल कलकत्ता में अध्यापन कार्य में लग गयी ।

1930 में जब गाँधी जी ने नमक का कानून तोड़ने के लिए सत्याग्रह शुरू किया तो उन्होंने पहली बार इस आंदोलन में भाग लिया । ‘नमक सत्याग्रह’ के दौरान उन्होंने जुआ व धरना का नेतृत्व किया तथा कम्पनी शासन के विरुद्ध आयोजित सभाओं में भाग लिया ।

ब्रिटिश शासन के विरुद्ध गतिविधियों में भाग लेने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर एक वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया । गांधी-इरविन समझौता के तहत 1932 में जेल से बाहर आते ही पुन: राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ी । सन 1932 में फिर गिरफ्तार कर दुबारा जेल भेज दी गयीं ।

इसी दौरान कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार के खिलाफ दिल्ली जेल में भूख-हड़ताल की सन् 1941 में ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ के दौरान पुन: जेल गयीं । सन 1942 की क्रान्ति में भूमिगत रहकर अभूतपूर्व भूमिका निभायी ।

क्रान्ति के दौरान गुप्त तरीके से दिल्ली व कलकत्ता सहित मुम्बई आदि क्षेत्रों का दौरा कर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जनजागरण का शंखनाद किया । क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलिप्त रहने के कारण 26 सितम्बर, 1942 को दिल्ली स्थित उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गयीं ।

ब्रिटिश सरकार द्वारा सम्पत्ति जब्त किए जाने के बाद भी आंदोलन में सक्रिय रही । उन्हें पकड़ने हेतु पाँच हजार के नगद पुरस्कार ककी घोषणा की गई । भूमिगत रहकर क्रान्तिकारी व साहसिक मोर्चाबन्दी के लिए प्रसिद्ध अरुणा आसफ अली को दैनिक ‘ट्रिब्यून’ ने ‘सन् 1942 की झाँसी रानी’ संज्ञा से विभूषित किया था ।

26 जनवरी सन् 1946 को उनके विरुद्ध गिरफ्तारी का वांरट वापस ले लिया गया, इससे तो उनका आत्मविश्वास और बढ़ गया । इसके बाद से वह राष्ट्रीय आन्दोलन में पुन: खुलकर जनता के बीच आ गयीं ।

साहित्य प्रेमी अरूणा आसफ अली समाजवादी विचारों में विश्वास करती थी । उन्होंने महान समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर ‘इंकलाब’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन व प्रकाशन भी किया था ।

‘लिंक एवं पैट्रियाट’ नामक समाचार-पत्रिका की संस्थापिका व व्यवस्थापिका भी थीं । स्वातंत्र्योत्तर भारत में वह सन् 1947 में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षा बनीं । सन् 1958 में नगर निगम की ‘प्रथम महिला मेयर’ निर्वाचित हुईं ।

उन्होंने अनेक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय, राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं का भी प्रतिनिधित्व किया, जिनमें ‘भारत-सोवियत मैत्री संघ,’ ‘एफ्रोएशियन एकता समिति’ ‘ऑल डण्डिया लीग फॉर पीस एण्ड फ्रीडम’ व ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ इण्डियन वीमन’ आदि प्रमुख थे ।

अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष 1975 में राष्ट्रीय कमेटी-कार्यक्रम की संयोजिका बनार्ड गर्ई थी । अन्तर्राष्ट्रीय ‘लनिन शान्ति पुरस्कार समिति’ सदस्या के रूप में भी चयनित की गयीं और देश का प्रतिनिधित्व कर राष्ट्र को गौरवान्वित किया । सन् 1961 में वह ‘गोवा मुक्ति’ ‘राष्ट्रीय संघर्ष समिति’ की भी अध्यक्षा बनाई गईं ।

वे राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन की ऐसी नेत्री थीं, जिनका सम्पूर्ण जीवन संघर्ष, त्याग, राष्ट्र व समाज सेवा समेत पत्रकारिता व राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के रचनात्मक कार्यों में गुजरा । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अरूणा आसफ अली का योगदान अविस्मरणीय है ।

14. इन्दिरा गांधी (Indira Gandhi):

इन्दिरा गाँधी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पुत्री थीं । उनका जन्म 19 नवम्बर, 1917 ई. को हुआ था । इन्दिरा गाँधी विलक्षण प्रतिभा की धनी थीं । साहस तथा शौर्य बचपन से ही इन्दिरा गाँधी में निहीत थी ।

अन्तर्राष्ट्रीय मानवता, विश्व में शान्ति-सद्भावना, राष्ट्रीय एकता व अखण्ड़ता, साम्प्रदायिक सौहार्द, परमाणु नि:शस्त्रीकरण, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, शिक्षा, कला-संस्कृति व विज्ञान सहित राष्ट्र के चतुर्दिक विकास में उनका योगदान अतुलनीय है ।

राष्ट्रीय आन्दोलन में इन्दिरा जी का प्रवेश सन 1930 में नमक सत्याग्रह व असहयोग आन्दोलन के दौरान वानर सेना नामक दल के गठन के साथ हुआ । बच्चों में राष्ट्र भक्ति की भावना के विकास के लिए उन्होंने वानर सेना गठित की ।

वानर सेना की मुख्य नायिका के रूप में उनका मुख्य कार्य कम्पनी शासन के विरुद्ध भाषण देना, झण्डे बनाना, धरना-जुलूसों की सूचना देना, दीवार-लेखन, लिफाफ़ों पर पता लिखकर विभिन्न जगहों पर सन्देश पहुँचाना, राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाले स्वयंसेवकों की पानी पिलाना, भूमिगत कार्य व जासूसी कार्य आदि था ।

सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दरम्यान जवाहरलाल नेहरू तथा गाँधी जी की गिरफ्तारी के पश्चात इंदिरा गाँधी इलाहाबाद लौट आई । जबकि फिरोज गाँधी भूमिगत हो गया ।

भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रस्ताव को घोषणा के आलोक में उन्होंने कॉलेज के विद्यार्थियों का नेतृत्व किया और सार्वजनिक सभा में भाषण देने का निर्णय लिया । सभा के बाद झण्डा फहराने की योजना थी ।

सभा का आयोजन प्रतिबन्धित था और नगर में निषेधाज्ञा लागू थी । परंतु इसकी परवाह न करते हुए इन्दिरा गाँधी ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति शुरू की ।

भाषण के दौरान फिरंगी आ धमके और सभा स्थल को चारों तरफ से घेर, भाषण बन्द नहीं किए जाने पर, गोली मारने की इन्दिरा जी को धमकी दी । इलाहाबाद में सरकार के आदेश के विरूद्ध भाषण देने के कारण नैनी जेल में बंद कर दी गई थी, जिसे 13 मई, 1943 ई. को जैल से रिहा कर दिया गया ।

भारत विभाजन का लेकर 1947 ई. में सम्प्रदायिक हिंसा को समाप्त करने में इंदिरा जी ने अद्भुत कोशल का परिचय दिया । शरणार्थियों की सहायता उन्होंने बड़ी निडरता के साथ की ।

मुस्लिम बस्तियों व हिन्दू गलियों में जाकर साम्प्रदायिक सद्भावना बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । दंगाईयों से मुस्लिम परिवारों को बचाया और उनके प्राणों की रक्षा की । साम्प्रदायिक सौहार्द बहाली के दौरान उन्हें गालियाँ व धमकियाँ भी सहनी पड़ीं ।

उस समय देश में अल्पसंख्यकों की समस्या भी काफी जटिल थी । इंदिरा गाँधी ने इस समस्या पर भी ध्यान दिया । विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक संस्थाओं में भी उनकी सेवाएँ विशेष उल्लेखनीय रहीं ।

सन् 1956 में यह अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की अध्यक्षा बनीं । सन् 1959 में अखिल भारतीय कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा निर्वाचित की गयीं । सन् 1962 में केन्द्रीय नागरिक परिषद की अध्यक्षा बनीं । सन् 1964 में राज्यसभा सदस्या निर्वाचित हुईं ।

सन् 1964 में ही केन्द्रीय सूचना व प्रसारण मंत्री बनीं । भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के पद पर 24 जनवरी, 1966 की नियुक्त की गई । बंगला देश के निर्माण में सक्रिय योगदान दिया । 1917 ई. के भारत-पाक युद्ध का सफल नेतृत्व किया, जिसमें भारत को विजय मिली ।

अन्तर्राष्ट्रीय संस्था गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की भी वह अध्यक्षा रहीं । सन् 1974 में राष्ट्र में इमरजेन्सी लागू किये जाने के कारण उनको सत्ता से हटना पड़ा । जे. पी. आन्दोलन ने राष्ट्रव्यापी आन्दोलन का रूप धारण कर लिया और सन् 1977 के संसदीय चुनाव में उन्हें भारी पराजय का सामना करना पड़ा ।

सत्ता से बाहर होने के बाद भी वह राष्ट्र के रचनात्मक कार्यों में अनवरत लगी रहीं । मध्यावधि चुनाव के वाद पुन: वह सत्ता में लौट आयीं । इन्दिरा जी अपने महान कार्यों के कारण देश की सीमाओं को लाँघकर सार्वदेशिक व सार्वकालिक हो गयी थीं ।

31 अक्तूबर, सन् 1984 को तख्त हरिमन्दिर (अमृतसर स्वर्ण मन्दिर) में आतंकवादियों के खिलाफ ‘ब्लू ऑपरेशन’ के तहत कार्रवाई किये जाने की अनुमति से खिन्न होकर उनके अंगरक्षक बेअंत सिंह व उसके एक अन्य साथी ने मिलकर गोली मार उनकी बर्बर हत्या कर दी । देश-विभाजन की बड़ी चाल का इंदिरा जी प्राण देकर विफल कर दिया । उनके त्याग तथा बलिदान का सदा याद रखा जाएगा ।

15. प्रतिभा पाटिल (Pratibha Patil):

भारतीय नारी ने शिक्षा समाज, राजनीति हर क्षेत्र में अपना नाम कमाया है । हमारे देश की महामहिम श्रीमती राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का जन्म महाराष्ट्र में हुआ तथा महाराष्ट्र से शिक्षा प्राप्त करने के बाद इनकी शादी देवी सिंह शेखावत से हुई जी कि राजस्थान के रहने वाले हैं ।

उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत को भारतीय जनता पार्टी द्वारा राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया गया था । परन्तु भाजपा की एक घनिष्ठ तथा महत्वपूर्ण सहयोगी शिवसेना ने श्रीमती पाटिल का पक्ष लेते हुए यह कहा कि प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने से महाराष्ट्र का गौरव बढ़ेगा ।

भाजपा के मत तो पहले से ही अपर्याप्त थे, शिवसेना के बाहर हो जाने से उसका मनोबल पूरी तरह टूट गया और 25 अगस्त, 2007 को श्रीमती पाटिल ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली ।

श्रीमती प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति हैं जो नारी-सशक्तीकरण की दिशा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है और इस देश हेतु तो और भी, जहाँ नारियों को देवियों की मर्यादा प्राप्त है तथा जहाँ उनको लेकर यह उक्ति अति प्रसिद्ध है कि- ‘जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं ।’

संप्रग दल में भी राष्ट्रपति पद के लिए वातावरण नहीं बन रहा था । महिला प्रत्याशी का राष्ट्रपति के रूप में समर्थन देने में काफी अवरूद्ध उपस्थित हुई । सर्वश्री प्रणव मुखर्जी, डॉ. कर्ण सिंह, श्री शिंदे के नाम पहले खूब उछले परन्तु किसी पर कांग्रेस को आपत्ति थी तो किसी पर उसके प्रमुख सहयोगी वामदल को ।

प्रणव मुखर्जी पर तो प्राय: सहमति वन गई थी परन्तु उन्हें ठीक पता था कि कांग्रेस उनके नाम पर कभी सहमत नहीं होगी । स्थिति को समझते हुए प्रणव मुखर्जी ने स्पष्ट रूप से यह बयान जारी का दिया कि वह इस पद के उम्मीदवार नहीं हैं ।

तत्पश्चात गृहमंत्री शिवराज पाटिल का नाम उछला । कांग्रेस उनके नाम पा अड़ी रही पर वामदल ने उनकी क्षमता पर ही प्रश्न-चिह्न लगा दिया । पाटिल राष्ट्रपति बनते-बनते रह गए । महिला-पुरुष समानता की अवधारणा को चरितार्थ करते हुए सोनिया गांधी ने प्रतिभा पाटिल के नाम का अनुमोदन कर दिया फिर भी विजय हासिल करने में अनेक समस्यायें थी ।

राष्ट्रपति के चुनाव अब तक प्राय: सर्वसम्मति से, पक्ष और विपक्ष के सहयोग से हुआ करते थे । वराह वैंकटगिटी एक मात्र निर्विरोध राष्ट्रपति थे । प्रतिभा पाटिल के नाम पर प्रतिपक्ष सहमत नहीं था ।

सत्ता पक्ष ने उसे सहमत करने का प्रयत्न किया तो दो टूक उत्तर मिला कि नाम घोषित करने के पश्चात सहमति नहीं बनाई जाती, वह उसके पूर्व ही बनती है । प्रतिक्रिया उचित थी । डॉ. कलाम का नाम भाजपा ने ही प्रस्तावित किया था परन्तु इसके पूर्व उसने कांग्रेस से विमर्श कर लिया था ।

विपक्ष भी अपनी तरफ से एक उम्मीदवार घोषित करना चाहता था, जिसके लिए उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत पहले से ही उपलब्ध थे । अंकगणित उनके पक्ष में नहीं था और भाजपाई होने के कारण वह और कम था । ऐसी स्थिति में शेखावत निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उपराष्ट्रपति के दावेदार बने ।

राष्ट्रपति के चुनाव में प्रजातंत्रिक मर्यादाओं तथा राष्ट्रपति पद की सारी गरिमा को तिरोहिट कर दिया गया था । गड़े मुर्दे उखाड़े तो उन्हें पराजित कर अपने उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत की विजय सुनिश्चित करनी थी ।

भाजपा ने तो हद ही कर दी एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने अपने साहस या दुस्साहस का परिचय देते हुए यहाँ तक कह दिया आरोप मंत्रियों के विरोध-फरियाद लेकर हम राष्ट्रपति के पास जाते थे, जब राष्ट्रपति ही आरोपी ही तो किसके पास जाएंगे ?

भैरों सिंह पर कांग्रेसी नेताओं द्वारा आरोप लगाए गए । आखिरकार जो पहले से ही तय था वही हुआ, प्रतिभा पाटिल चार लाख से अधिक मतों से विजयी हुई और शेखावत को उपराष्ट्रपति पद से त्याग-पत्र देना पड़ा ।

राष्ट्रपति पद का चुनाव होने से पहले श्रीमती प्रतिभा पाटिल राजस्थान की राज्यपाल थीं और इस पद को त्याग कर ही वह चुनाव में उतरी थीं । वह दो बार राज्य सभा की सदस्या भी रह चुकी है । इस प्रकार राजनीति के दाव-पेंच से वह पूरी तरह परिचित थी । वह कहती भी हैं कि वह ‘पोलिटिकल प्रेजिडेंट’ होंगी, ‘रबर-स्टाम्प प्रेजिडेंट’ नहीं ।

डॉ. कमाल को ‘पब्लिक प्रेजिडेंट’ की उपाधि प्राप्त थी । राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने नारी के विकास के लिए हर संभव प्रयास किये । जब देश में नारी की स्थिति मजबूत होगी तो स्वतः ही देश मजबूत होगा । उन्होंने सरकारी समितियों के माध्यम से नारी विकास पर जोर दिया ।

15 अगस्त, 2010 की पूर्व संध्या पर अपने भाषण में उन्होंने बेरोजगारी-समाप्ति, वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास पर अपनी प्रतिबद्धता दोहरायी थी । कृषि को उन्नत करने के लिए वैज्ञानिक तकनीकों के इस्तेमाल पर प्रतिभा पाटिल ने जोर दिया ताकि भारतीय कृषक जीवन के उच्च स्तर को प्राप्त कर सके ।

16. सोनिया गाँधी (Sonia Gandhi):

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की पत्नी सोनिया गाँधी है । जो मूलत: इटली ही है । सोनिया गाँधी भारतीय राजनीति की एक ऐसी अद्वितीय महिला हैं, जिन्होंने पूर्ण बहुमत मिलने पर भी प्रधानमंत्री पद को ठुकरा दिया और यह कहते हुए कि- डॉ. मनमोहन सिंह के हाथ देश सुरक्षित रहेगा, यह पद उन्हें सौंप दिया ।

भारत के संसदीय व राजनीतिक इतिहास में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बाद अभी तक ऐसा नहीं हुआ था । इनका जन्म 9 दिसंबर, 1946 को उत्तरी इटली के ऑरबैसेनो में हुआ था । सोनिया गाँधी के पिता का नाम स्टीफेनो एवं माता का नाम पाओला था ।

उनका बचपन तरिन के बाहरी इलाके के औद्योगिक कस्बे में गुजरा । ये तीन बहने हैं जिनका नाम क्रमश: सोनिया, नादिया तथा अनुष्का है । उन्होंने उच्चतर शिक्षा कॉन्वेंट ऑफ मारिया ऑसिलियाट्रिस और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से प्राप्त की ।

सोनिया गाँधी रूसी, स्पेनिश, फ्रांसीसी, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा की जानकार हैं । इन्होंने रूसी भाषा अपने पिता से सीखी थी । 1965 ई. में सोनिया गाँधी ने अंग्रेजी भाषा सिखी । राजीव गाँधी से पहली भेट यूनानी रेस्तराँ वर्सिटी में हुई । सर्वप्रथम दिल्ली आगमन 13 जनवरी, 1968 ई. को हुआ ।

राजीव गाँधी एवं सोनिया गाँधी का विवाह 25 फरवरी, 1968 ई. को हुआ । जिससे राहुल एवं प्रियंका गाँधी (बडेरा) का जन्म हुआ । राहुल गाँधी का जन्म 1970 में दिल्ली में हुआ । सोनिया गाँधी का भारतीय राजनीति में पदार्पण 20 जून, 1975 में हुआ ।

उनके राजनीतिकरण का प्रारंभ दिल्ली के वोट क्लब में आयोजित एक विशाल रैली से हुई जिसमें करीब 1 लाख लोगों ने भाग लिया था । सोनिया गाँधी भारत रत्न श्रीमती इन्दिरा गाँधी की सदैव विश्वासपात्र रहीं । इन्दिरा जी इनको बेहद प्यार करती थीं ।

ये भी इन्दिरा गाँधी की सच्ची माँ की तरह सेवा करती थीं और उनकी घनिष्ठ सलाहकार रहीं । राजनीतिक विषयों पर सोनिया गाँधी प्रश्न भी करती थीं । एक बार उन्होंने इंदिरा गाँधी से पूछा कि, कांग्रेस भारत में गरीबी दूर करने के लिए प्रतिबद्ध है, आखिर गरीबी कब दूर होगी ?

इस प्रश्न के उत्तर में इंदिरा गाँधी ने कहा था कि अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है । सोनिया गाँधी ने भारतीय नागरिकता 1985 में ग्रहण ही । 18 फरवरी, 1997 ई. को प्रियंका गांधी की शादी रॉबर्ट बडेरा के साथ हुई ।

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी सम्मेलन की सर्वप्रथम अध्यक्षता सितम्बर 1998 में पंचमढ़ी में की, उसी साल कांग्रेस की अध्यक्षा बनी । वह राजनीति में प्रवेश के समय से ही धर्मनिरपेक्षता व साम्प्रदायिक सद्भावना की प्रबल समर्थक रही हैं ।

सोनिया गाँधी का सोच भारत को महान देश बनाने में पूर्णतया नेहरू, इन्दिरा व राजीव के विचारों से मेल खाता है । वे देश की एकता एवं अखण्डता तथा खुशहाली के लिए कटिबद्ध व प्रतिबद्ध हैं । सोनिया गाँधी समाज सेवी, राष्ट्र सेविका तथा प्रबुद्ध महिला के प्रतिरूप है ।

उनका यह कथन कि- ”यह देश मेरे जीवन के पल-पल में सम्मिलित रहा । मैं सुहागिन यहाँ बनी, माँ यहां बनी, मैं विधवा आपकी आंखों के सामने हुई । इस देश की सबसे महान पुत्री इंदिरा जिसने अपनी साँस मेरी बाँहों में तोड़ी । मेरी हिंदूस्तानियत पर शक करने वालों को मैं जवाब नहीं दूंगी । इस देश की जनता देगी । मैं भी उतनी ही भारतीय हूँ, जितने कि आप भारतवासी । मुझे कोई राजनीतिक पद नहीं चाहिए । मैं राजनीति में इसलिये आयी, ताकि गरीबों व राष्ट्र की सेवा कर सकूँ, आम भारतीयों की तकलीफ को समझ सकूँ क्योंकि आपकी तकलीफ मेरी तकलीफ है ।”

यह वक्तव्य भारतीयता के प्रति श्रीमती गाँधी की निष्ठा को प्रमाणित करता है ।

6 अप्रैल, 2004 को सोनिया गांधी रामबरैली से सांसद चुनी गई । 1998-99 का लोकसभा चुनाव इनके नेतृत्व में ही लड़ा गया था । सन् 2004 में कांग्रेस की छ: वर्ष वाद पुन: सत्ता में लाने का श्रेय इन्हीं को जाता है । कांग्रेस नेता के रूप मैं निर्विरोध प्रधानमंत्री बनने की जगह उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बनाकर त्याग का विश्वव्यापी कीर्तिमान स्थापित किया ।

इससे पहले भी सोनिया गांधी ने पी. वी. नरसिंहा राव को कांग्रेस अध्यक्ष एवं देश का प्रधानमंत्री बनवाया था । आज जब देश में विभिन्न प्रकार की राजनीतिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं तो ऐसी दशा में पारस्परिक सहयोग और भी महत्वपूर्ण हो जाता है ।

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