Read this article in Hindi to learn about the financial status of women in India.

वर्तमान समय में महिलाओं की आर्थिक दशा में समाज की स्थिति के विकास के एक निर्धारक के रूप में स्वीकार किया जाता है क्योंकि महिलाएं प्रत्यक्षत: अथवा अप्रत्यक्षत: आर्थिक क्रियाओं में योगदान देती है ।

वे समस्त पारिवारिक दायित्वों का बोझ स्वयं उठाकर पुरुषों को केवल आर्थिक क्रियाएँ संपादित करने का पूरा समय व अवसर प्रदान करती है अथवा स्वयं भी पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के साथ-साथ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आर्थिक क्रियाओं में संलग्न होती है ।

आज भागीदारी की दृष्टि से कृषि, पशु, व्यवसाय, हैण्डलूम आदि में महिलाओं के अनुपात में काफी हद तक वृद्धि हुई है । यही नहीं, पिछले दशक में महिलाओं की क्रियाओं से संबंधित नये आयाम उभरकर सामने आए हैं ।

ADVERTISEMENTS:

अब वे हलेक्ट्रोनिक्स, टेली कम्युनिकेशन, उपभोक्ता उत्पादन संगठित क्षेत्र के उद्योगों, विधि संबंधी, चिकित्सा संबंधी, प्रशासनिक तथा अन्य प्रमुख व्यवसायों में हिस्सा ले रही है ।

महिलाओं की आर्थिक स्थिति को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से भली-भांति स्पष्ट किया जा सकता है:

1. कार्य में महिलाओं की भागीदारी की दर (Rate of Women Participation in Work):

1981 की संगणना से ज्ञात होता है कि पुरुषों व महिलाओं का अनुपात 935 है । इस संगणना के अनुसार कुल जनसंख्या 684 मिलियन थी जिसमें 330 मिलियन महिलाएं थी । इसी संगणना में 1981 में कार्य में भागीदारी की दर 37.55% आंकी गई जो 1971 में 34.17% थी ।

ADVERTISEMENTS:

महिलाओं की कार्य भागीदारी की दर 1971 की 14.22% की तुलना में 1981 में 20.85% तक पहुंच गई । ग्रामीण क्षेत्र में यह 15.92% (1971) की तुलना में 10.64% (1981) हो गई । किन्तु पुरुषों की तुलना में महिलाओं की कार्य में भागीदारी की दर का अनुपात बहुत कम था । 1981 में पुरुषों की कार्य भागीदारी की दर 53.91% थी जो कि महिलाओं की तुलना में 32.44 अधिक थी ।

यह अंतराल शहरी क्षेत्र में अधिक (पुरुषों की 49.70% व महिलाओं की 10.64%) तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कम (पुरुषों की 54.32% तथा महिलाओं की 28.89%) मापा गया ।

2. रोजगार (Employment):

महिलाओं के लिए ‘कार्य’ शब्द का कोई अर्थ, परिभाषा व सीमा निर्धारित नहीं है । हालांकि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में उनकी भूमिका 60-80 प्रतिशत तक है तथापि उनकी क्रियाओं को सकल राष्ट्रीय उत्पादन में सम्मिलित नहीं किया जाता है । अनुमानों के आधार पर महिलाओं के अभुगतानित श्रम की नकद वार्षिक कीमत लगभग 4 ट्रिलियन डॉलर होती है जो विश्व के सकल राष्ट्रीय उत्पादन का एक-तिहाई भाग है ।

भारत में कुछ आंकड़ों के माध्यम से पता चलता है कि यहाँ कि कुल महिलाओं की जनसंख्या का केवल 13.99% महिलाएं ही आर्थिक उत्पादक क्रियाओं में वर्ष भर संलग्न रह पाती है ।

ADVERTISEMENTS:

5.77% महिलाएं आंशिक रूप से अर्थात पूरे वर्ष भर संलग्न नहीं रहती है तथा 80.23% महिलाएं बिल्कुल नॉन वर्कर्स की श्रेणी में आती हैं दूसरे शब्दों में प्रमुख कार्यकर्ताओं के रूप में महिलाएं कुल श्रम-शक्ति का मात्र 20.22 प्रतिशत भाग ही है ।

सन् 1986 में श्रम मांगल्य द्वारा प्राप्त आंकड़ों के अनुसार करीब 35.4 मिलियन लोग सब्सिडियरी स्टेटस-वर्कर्स थे । ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी संख्या 31.28 मिलियन थी जिसमें से (अधिकांशतः) 25.8 मिलियन महिलाएं थीं ।

उच्च शिक्षा से संबंधित रोजगार में लगभग 22% महिलाएं शहरी क्षेत्रों में कार्यरत थीं जबकि पुरुषों का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में 77.4% तथा शहरी क्षेत्रों में 81% था । सैकण्डरी स्तर तथा इससे उच्च स्तर की शिक्षा संबंधी रोजगार क्रियाओं में ग्रामीण क्षेत्र में 7.21% पुरुष व 1.08% महिलाएं तथा शहरी क्षेत्रों में 29% पुरुष व 16.5% महिलाएं कार्यरत थीं ।

कुछ आंकड़ों के अनुसार ज्ञात हुआ है किभारत में 15-29 वर्ष की आयु समूह के बेरोजगारों की संख्या 7.3 मिलियन हैं जिसमें से 5.8 मिलियन पुरुष तथा 1.3 मिलियन महिलाएं हैं । ऊपर दिये गये आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि अर्थव्यवस्था में महिलाओं की आर्थिक क्रिया में संलग्नता विकास की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है ।

हालांकि समाज इसके बावजूद भी आज तक सामाजिक व आर्थिक आकलनों में उनके आर्थिक योगदान को अस्वीकार करता रहा है तथापि उनकी क्रियाओं के सहयोग के अभाव में अर्थव्यवस्था की पहचान व विकास पर ही प्रश्न चिह्न लग जाता है ।

3. प्रतिफलों में विभेदीकरण (Differentiation in Reflections):

ऊपर दिये गये व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि महिलाएं अनेक प्रकार के उत्तरदायित्वों को वहन करने के बावजूद आर्थिक क्रियाओं में पूर्ण अथवा आंशिक रूप से संलग्न हैं किन्तु आज भी अनेक संगठित व असंगठित क्षेत्र में उन्हें पुरुष के बराबर कार्य के लिए उनके समान प्रतिफल नहीं दिया जाता ।

इसका कारण यह बताया जाता है कि महिलाएं प्रत्येक दृष्टि से पुरुषों से कम हैं, शारीरिक दृष्टि से पुरुषों की अपेक्षा कमजोर है, उनमें पुरुषों की अपेक्षा कार्य करने की क्षमता कम है, अत: उन्हें पारिश्रमिक भी पुरुषों की तुलना में कम मिलना चाहिए ।

परंतु इतिहास इस बात का गवाह है कि समय पड़ने पर महिलाओं ने वे कठोर व परिश्रम पूर्ण कृत्य करके दिखाए हैं, जिन्हें शायद पुरुष के लिए भी सहज में करना संभव नहीं है ।  आज विश्व में प्रत्येक क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के समान सुविधाएं न मिल पाने पर भी होड़ में उनसे आगे निकल रहीं हैं, वे पुरुषों से शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक किसी भी दृष्टि से पीछे नहीं हैं ।

अत: समान कार्य के लिए समान पारिश्रमिक का न मिलना महिलाओं के साथ अन्याय है । समान वेतन विधेयक पारित होने के इतने लम्बे समय बाद भी आज तक अनेक क्षेत्रों में इसे व्यवहार में नहीं लाया जाकर, विकास मार्ग में अवरोध उत्पन्न किये जा रहे हैं ।

4. संपत्ति के संबंध में महिलाओं का आर्थिक अधिकार (Economic Rights of Women in Relation to Property):

महिलाओं द्वारा मानवीय सम्पत्ति के अर्जन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान देने के बाद भी उन्हें संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया । जैसा कि विजय लक्ष्मी पंडित ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उनके पति रणजीत की मृत्यु के पश्चात वह उत्तराधिकर स्वरूप कुछ प्राप्त नहीं कर सकती थी क्योंकि उनके कोई पुत्र नहीं था ।

वे अपने पति के जीवनकाल में जहां मनचाही धनराशि प्राप्त कर सकती थी, उनके मापे के बाद उनके पास अपनी कोई संपत्ति नहीं थी । हालांकि कानूनी तौर पर आज महिलाओं को संपत्ति का समान अधिकार प्राप्त है तथापि वे आर्थिक दृष्टि से अपने जीवन के सभी कालों में पुरुष की दया पर हीं आश्रित हैं बचपन में पिता पर, विवाहोपरान्त पति पर तथा वृद्धावस्था में पुत्र पर ।

5. विरासत (Inheritance):

भारत में आजादी के पहले हिंदूओं के बीच उत्तराधिकार की कई प्रणालियाँ प्रचलित थीं जिसमें से अधिकांश प्रणालियों में स्त्रियों की स्थिति पराश्रितता की थी और उनके स्वत्वाधिकार नहीं के बराबर थे । जहां उन्हें कुछ अधिकार प्राप्त भी थे वे मात्र जीवनयापन के अधिकार थे पूर्ण स्वामित्व की नहीं ।

”हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम, 1956” ने कुछ आमूल परिवर्तन किए । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण एक ही श्रेणी (भाई और बहन, पुत्र और पुत्री) के स्त्री और पुरुष वारिसों के बीच उत्तराधिकार के बराबर अधिकार हैं ।

इस परिवर्तन ने मिताक्षरा और दायभाग सम्प्रदायों के अन्तर्गत प्रचलित भिन्न प्रणालियों का उन्मूलन करके कानून को सरल बना दिया और इस कानून की सबसे बड़ी प्रगतिशील विशेषता यह है कि इसमें स्त्रियों के विरासत के अधिकार को मान्यता दी गई है और स्त्री वारिसों के मात्र जीवन-यापन हेतु संपत्ति प्राप्ति के अधिकार का उन्मूलन कर दिया गया ।

परंतु दुर्भाग्यवश परम्परागत प्रतिरोध के कारण मूल आशयों में कुछ समझौते करने पड़े । उदाहरण कि लिए, पुत्रों और पुत्रियों के बीच असमानता बनाए रखने वाला मुख्य कारक मिताक्षरा बपौती को बनाए रखना है, जिनकी साझेदारी सदस्यता केवल पुरुषों तक ही सीमित है ।

बहुत सारे निर्णयों और कानूनों ने, जैसे ”हिन्दू स्त्री का संपत्ति अधिकार अधिनियम” और “हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम” ने बपौती की इस संकल्पना पर प्रहार किए हैं । प्रवर समिति द्वारा संशोधित “हिन्दु कोड विधेयक 1948” में वस्तुत: बपौती के अर्थात् पुरुष के जन्मसिद्ध अधिकार के उन्मूलन का सुझाव दिया गया था । किन्तु परम्परागत प्रतिरोध इसके लिए बहुत प्रबल साबित हुआ ।

इसे लेकर जो समझौता किया गया था वह आज के कानून में इस रूप में समाविष्ट हो गया है, कि बपौती के साझीदार पुरुष सदस्य के स्त्री वारिसों को भी उसकी संपत्ति का कुछ भाग मिलता है जो कि अभिप्रायात्मक विभाजन द्वारा सीमांकित किया गया होता है ।

इसके फलस्वरूप पुत्रों की बपौती-साझेदार के रूप में जो लाभ मिलता है वह तो मिलता ही है किन्तु इसके अतिरिक्त उसे पिता की संपत्ति में भी हिस्सा मिलता है दाय भाग प्रणाली के अनुसार बहनों (पुत्रियों) को भाईयों के साथ बराबर का हिस्सा मिलना है क्योंकि इस प्रणाली में पुत्रों का कोई जन्मसिद्ध अधिकार नहीं माना गया है ।

बपौती साझेदरी में अपने हिस्से का त्याग करने के बपौती साझेदार के अधिकार का प्रयोग प्राय: स्त्री-वारिसों को संपत्ति में हिस्सा न देने अथवा कम हिस्सा देने के लिए किया जाता रहा है । अत: पुरुष के जन्मसिद्ध अधिकार का समाप्त कर मिताक्षरा बपौती को दायभाग बपौती में बदल देना चाहिए ।

”हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956” की धारा 4(2) में राज्य कानूनों के अन्तर्गत आने वाली कृषि जोतों पर काश्तकारी अधिकारों के हस्तान्तरण को अधिनियम की परिधि से बाहर रखा गया है । इसके कारण बहुत से राज्यों में भूमि संबंधी कानूनों के अन्तर्गत हिन्दु उत्तराधिकार अधिकार के लाभकारी प्रभाव समाप्त हो गए हैं ।

कई राज्यों में भू-धृति लाभों को उत्तराधिकार के संबंध में विशिष्ट उपबंध नही हैं, तथापि कुछ राज्यों में प्रभावी रूढ़िवादी वर्ग विधवाओं और पुत्रियों को इस प्रकार के कानूनों का कोई विशिष्ट आर्थिक औचित्य बताए बिना हीं अधिकारों से वंचित रखने में सफल हो गए हैं ।

इसका एक विशिष्ट उदाहरण ”उत्तरप्रदेश, जमींदारी उन्मूलन” और “भू-सुधार अधिनियम, 1950” है जिसके आगे चलकर उस राज्य की सभी कृषि-भूमियों में लागू होने की संभावना है ।

इसी प्रकार के भेदभावपूर्ण लक्षण कर्नाटक, पंजाब, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में अपनाए गए भूमि की उच्चतम सीमा संबंधी कुछ कानूनों में दिखाई देते हैं । स्त्रियों के लिए सामाजिक समानता और कानूनों की एकरूपता के हित में ”हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956” की धारा 4(2) को रद्द कर दिया जाना चाहिए ।

”हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956” की आवासी घरों के विरासत अधिकार से संबंधित धारा 23 के परिणामस्वरूप भी अविवाहित विधवा और विवाहित पुत्रियों में भेदभाव होते हैं ।

यद्यपि इस धारा का मुख्य उद्देश्य सही है, जो एक व्यक्ति के स्थान पर पूरे परिवार के अधिकारों की प्रधानता पर बल देता है और विभाजन पर रोक लगाता है, किन्तु इसके द्वारा विवाहिता और अन्य पुत्रियों के बीच भेदभाव किया जाता है क्योंकि केवल अविवाहिता पुत्रियों अथवा विधवा तथा जिन्हें उनके पतियों ने छोड़ दिया है, उन्हें ही निवास का अधिकार दिया जाता है ।

वसीयत के अनिर्बनिधत अधिकार का परिणाम प्रायः ही स्त्री वारिसों को उनके विरासत अधिकारों से वंचित करना होता है । अत: “हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956” के अन्तर्गत इस अधिकार को निबन्धित किया जाना चाहिए ।

6. वैवाहिक संपत्ति अथवा स्वयं द्वारा अर्जित संपत्ति (Marital Property or Property Acquired by Itself):

भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुसार परिवार की अर्थव्यवस्था में पत्नी के योगदान को मान्यता नहीं दी जाती । अधिसंख्य महिलाएं आजीविका अर्जन के लिए कुटुम्ब के प्रयासों में हाथ बंटाती हैं और जब वे ऐसा नहीं करतीं तब भी गृह संचालन में तो वे सारे घरेलू दायित्व का वहन हुए अपने-अपने पतियों को इस बात के लिए स्वतंत्र रखती हैं कि वे अपना कारोबार कर सकें ।

उनके इन प्रयासों के आर्थिक मूल्यों को कानून में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार नहीं किया जाता । विवाहित स्त्रियां, जिनका अपनी स्वतंत्र आय का कोई साधन नहीं होता या फिर जो विवाह के बाद, अपना पूरा समय पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह में लगाने के लिए नौकरी छोड़ देती हैं, वे भी आर्थिक रूप से अपने पतियों पर निर्भर रहती है ।

ज्यादातर मामलों में, विवाहित जीवन के दौरान अर्जित चल और अचल संपत्ति का मालिक कानूनी तौर पर पति होता है । क्योंकि इसका दाम उसकी कमाई से चुकाया जाता है ।

विवाह-विच्छेद अथवा अलग हो जाने की स्थिति में जिन महिलाओं की अलग से अपनी कोई कमाई अथवा बचत नहीं होती वे उस सारी संपत्ति से वंचित कर दी जाती हैं जिसे उन्होंने साथ-साथ अर्जित किया था । यहां तक कि विवाह के समय उन्हें जो संपत्ति पति अथवा उसके परिवार से मिलती है, वह कतिपय समुदायों में महिलाओं को नहीं दी जाती ।

इस प्रकार वित्तीय योगदान के आधार पर स्वामित्व निर्धारित करने का सिद्धान्त महिलाओं के साथ न्याय नहीं करता और इसलिए यह वित्तीय अथवा सामाजिक असुरक्षा उन्हें विवाहित जीवन सफल न होने की स्थिति में भी पति से अलग होने अथवा विवाह-विच्छेद करने से रोकती रहती है ।

अत: यह आवश्यक है कि वास्तविक वित्तीय योगदान की पुरातन कसौटी जारी रखने के स्थान पर घरेलू कार्य के माध्यम से स्त्रियों द्वारा किए गए योगदान के आर्थिक मूल्य को भी वैवाहिक संपत्ति के स्वामित्व का निर्धारण करने के प्रयोजन से विधिक मान्यता दी जाए एवं विवाह-विच्छेद अथवा पति से अलग हो जाने की स्थिति में पत्नी को विवाह के समय और विवाहित जीवन के दौरान प्राप्त परिसम्पत्तियों का कम-से-कम एक तिहाई हिस्से का हकदार माना जाना चाहिए ।

7. अन्य (Others):

भारत एक अत्यन्त निर्धन, परम्परावादी, रूढिवादी तथा अनेक सामाजिक कुरीतियों का पोषक राष्ट्र है । कन्याओं को यहाँ एक आर्थिक बोझ माना जाता है । कन्या के जन्म से माता-पिता उसके दहेज की तैयारी में जुट जाते हैं ।

दहेज अपने विकृत रूप में आज प्रत्येक लड़की के माता-पिता हेतु वह आर्थिक दायित्व बन गया है जो उन्हें कन्या के विवाह के समय अपनी कन्या की खुशहाली को ध्यान में रखते हुए इसीलिए निभाना होता है क्योंकि वर के माता-पिता ने वर की शिक्षा-दीक्षा पर तथा उसके पालन-पोषण पर व्यय करके उसे योग्य बनाया ।

यही कारण है कि अधिकांश लोग लड़की की शिक्षा पर चाहते हुए भी व्यय नहीं कर पाते क्योंकि इससे लड़की के पिता के ऊपर आर्थिक बोझ बढ़ जाता है ।

दहेज विरोधी कानून बनने के इतने वर्षों बाद भी आज तक दहेज रूपी दानव की इस कुप्रथा के ही कारण आज समाज में कन्याओं को दहेज के रूप मैं आर्थिक साधन प्राप्त करने का साधन बना दिया गया है और उसके माता-पिता द्वारा वर पक्ष की मांगों की पूर्ति न किये जाने पर कन्याओं पर अमानवीय अत्याचार किये जाते हैं ।

उनकी हत्या तक कर दी जाती है अथवा उन्हें आत्महत्या हेतु विवश कर दिया जाता है । इस उत्पीड़न से बचने के लिए जो कन्याएं किसी तरह शिक्षा प्राप्त कर आर्थिक क्षेत्र में योगदान देती है और उन्हें आत्मनिर्भर होने के बाद भी समाज द्वारा थोपे गए कलंकों से तंग आकर आत्महत्या करनी पड़ती है ।

ज्यादातर महिलाएं आर्थिक स्थितियों की प्रतिकुलता के कारण अशिक्षित रह जाती हैं उनके लिए रोजगार के पर्याप्त साधन भी उपलब्ध नहीं हो पाते । दूसरी ओर दहेज प्रथा के कारण माता-पिता पर केवल आर्थिक बोझ रह जाती हैं अथवा विधवा हो जाने पर जब समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता तो वे सामाजिक अत्याचार व निर्धनता का शिकार हो कर वैश्यावृति जैसे व्यवसाय को स्वीकार करने हेतु विवश हो जाती है ।

कुछ आंकड़ों से विदित हुआ है कि कुछ निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में तो दहेज की कीमत वसूल करने, ऋण मुक्ता होने अथवा परिवार के सदस्यों का जीवन-यापन करने के उद्देश्य से उन्हें वैश्यावृति हेतु बाध्य किया जाता है ।

आजकल बड़े शहरों व महानगरों में यह एक व्यवसाय के रूप में संचालित किया जाता है तथा विचौलिये व मध्यस्थ आर्थिक प्राप्ति के लिये कन्याओं का अपहरण कर उन्हें व्यापारियों के संघों को बेच देते हैं जहां उन्हें वैश्यावृति हेतु बाध्य होना पड़ता है ।

कुछ आदिवासी व ग्रामीण क्षेत्रों में तो माता-पिता स्वयं आर्थिक दायित्वों से मुक्त होने व वित्तीय सहायता के लालच के कारण अपनी कन्याओं को बेच देते हैं अथवा उन्हें वैश्यावृति के लिए उकसाते हैं । कुछ ऐसे स्थान है जहाँ वैश्यावृति को धर्म के नाम पर प्रोत्सहित किया जाता है जैसे दक्षिणी भारत में किसी कन्या का देवदासी बनना उसके माता-पिता हेतु गौरव व प्रतिष्ठा का सूचक समझा जाता है ।

गरीबी के कारण भारत में ज्यादातर परिवारों में बच्चों को भी आर्थिक क्रियाओं के संपादन हेतु छोटे-छोटे काम करने के लिए भेज दिया जाता है ताकि वे परिवार की आर्थिक रूप से मदद कर सकें ।

इस तरह के कार्यों में उन्हें अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता है अथवा कई बार उन्हें विकलांगता का सामना करना पड़ता है अथवा रूई आदि से संबंधित अनेक कार्य ऐसे हैं जिनसे अनेक स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा वो अकाल मृत्यु के मुंह में ढकेल दिये जाते हैं ।

इन बाल श्रमिकों में कुल श्रमशक्ति को दृष्टिगत रखते हुए बाल महिलाओं का योगदान अधिक है । मद्रास शहर में बाल महिला श्रमिकों के एक अध्ययन में पाया गया कि लगभग 3/4 महिला श्रमिकों ने परिवार की आय बढ़ाने हेतु रोजगार प्राप्त किया ।

24 प्रतिशत अपने माता-पिता की नकल के कारण रोजगार में थे । धनीवर्ग इन बाल श्रमिकों से अत्यधिक कठोर परिश्रम करवाते हैं तथा बहुत ही कम पारिश्रमिक देकर न केवल उनका आर्थिक रूप से शोषण करते हैं बल्कि महिला बाल श्रमिकों की अज्ञानता का लाभ उठाकर उन्हें भोग विलास की सामग्री के रूप में भी प्रयुक्त करते हैं ।

कई दृष्टान्तों में देखा गया कि माता-पिता वास्तविक स्थिति को जानते हुए भी इस भय से विरोध नहीं कर पाते कि कहीं उन्हें नौकरी से हटा दिया गया तो वे पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे करेंगे ?

Home››Women Status››