Read this article in Hindi to learn about the social status of women in India.

भारत विश्व की आबादी की दृष्टि से दूसरा सबसे बडा देश है करीब 200 मिलियन महिलायें है जो गरीबी में जीती हैं । भारत की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का 18 प्रतिशत है । परन्तु भूमि की दृष्टि से भारत का हिस्सा मात्र 2.4 प्रतिशत है ।

इसके फलस्वरूप भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत अधिक दबाव रहता है, वर्तमान में भारत की 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या भूमि संसाधनों से अपना जीविकोपार्जन करती है । इस जनसंख्या में 84 प्रतिशत ऐसी महिलायें है जो आर्थिक रुप से सक्रिय हैं ।

भारत ऐसे कुछ देशों में है जहाँ पुरुषों की संख्या महिलाओं से काफी ज्यादा है और इस असंतुलन में समय के साथ बढोत्तरी ही हुयी है । ग्रामीण क्षेत्रों में माताओं की मृत्यु दर भारत में पूरे विश्व की तुलना में अधिकतम है । पूरे विश्व के परिप्रेक्ष्य में देखे तो भारत में जिन्दा जन्मों की दर 19 प्रतिशत है और माताओं की मृत्यु दर 27 प्रतिशत है ।

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”इस बात पर आम सहमति है कि महिला जनसंख्या में जो कमी है, उसका कारण ये है कि महिला मृत्यु दर एक और 5 वर्ष की आयु में अधिक है और माताओं की मृत्यु दर भी अधिक है । 1990 में ये अनुमान किया गया था कि भारत में छोटी लडकियों की मृत्यु छोटे लडकों की तुलना प्रति वर्ष 3,00,000 से भी अधिक है और प्रत्येक छठे शिशु की मृत्यु का प्रमुख कारण लैंगिक भेदभाव है” भारत में प्रति वर्ष जन्म लेने वाली 15 मिलियन बच्चियों में से करीब 25 प्रतिशत बच्चियां अपना 15वां जन्म दिन नहीं देख पातीं ।

यद्यपि भारत पहला देश था जिसने वर्ष 1952 में परिवार नियोजन कार्यक्रम की घोषणा आधिकारिक रूप से की थी, फिर भी इसकी जनसंख्या 1951 में 361 मिलियन थी जो 1991 में बढकर 844 मिलियन हो गयी । भारत की प्रति महिला कुल प्रजनन दर 3.8 है जो विश्व मानकों की दृष्टि से सामान्य ही कही जायेगी ।

परन्तु जनसंख्या में तेजी से बढोत्तरी होने के कारण यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगाना, 8वीं पंचवर्षीय योजना के सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण छ उद्देश्यों में से यह एक है । वर्ष 1970 से आधुनिक गर्भनिरोधक तरीकों का इस्तेमाल 10 प्रतिशत से बढकर 40 प्रतिशत हो गया है ।

फिर भी, उत्तर प्रदेश व दक्षिण भारत में इनके प्रयोग में बहुत अधिक अन्तर पाया जाता है । भारत में गर्भनिरोधक का सबसे प्रचलित तरीका बंध्यीकरण है जो आधुनिक गर्भ निरोधक के कुल उपयोग का 85 प्रतिशत है । इसके विपरीत महिलाओं का बंध्यीकरण सभी बंध्यीकरणों का 90 प्रतिशत है ।

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भारतीय संविधान महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार देता है परन्तु पितृसत्तात्मक परम्परायें इतनी मजबूत हैं कि महिलाओं का जीवन उन रीति-रिवाजों के आधार पर बना हुआ है जो कई शताब्दी से है । बहुत से भारतीय परिवारों में, कन्या का जन्म बोझ समझा जाता है और उसकी परवरिश इस प्रकार की जाती है कि वो समझे कि पुरुषों की तुलना में वो निम्न स्तर की है और उनके अधीन हैं ।

लडकों को ज्यादा महत्व और सम्मान दिया जाता है । हिन्दू विवाह के अवसर पर कन्या को यह सामान्य आशीर्वाद दिया जाता है कि दुधो नहाओ पूतों फलो समुचित महिला व्यवहार के भारतीय विचार का मूल उद्‌गम मनु द्वारा 200 ई॰पू॰ बनाये गये नियमों में खोजा जा सकता है – ”किसी युवा लडकी, युवा महिला अथवा किसी वृद्ध महिला द्वारा भी स्वतंत्र रूप से कुछ भी नहीं किया जाना चाहिये, अपने घर में भी नहीं ।”

”बचपन में लडकी को अपने पिता के अधीन होना, युवा अवस्था में पति के अधीन, पति की मृत्यु होने पर लडकों के अधीन और इस प्रकार महिला को कभी भी स्वतन्त्र नहीं होना चाहिये ।”

महिलायें कुपोषण की शिकार:

दक्षिण एशिया में कुपोषण की दरे बहुत ऊँची हैं और ये पुरुष और महिला के बीच असमानता पर आधारित हैं । ”पतियों और बडे लोगों द्वारा लडकियों और महिलाओं को निचले दर्जे की देखभाल मिलती है, यह कुपोषण का प्रमुख कारण है । यह दक्षिण एशिया में पूरे विश्व की तुलना में कहीं बहुत ज्यादा है ।”

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यह मुददा यूनिसेफ द्वारा प्रकाशित 1996 प्रोग्रेस्ट ऑफ नेशन्स में समाहित लेख ‘दि एशियन स्टनिग्मा’ में उठाया गया है । इसमें दक्षिण एशिया के बाल कुपोषण की तुलना अफ्रीका से की गई हे । इससे पता चलता है कि कुपोषण दक्षिण एशिया में बहुत अधिक है, जिसका सीधा कारण यह है कि यहाँ भी महिलाओं को बोलने की वैसी आजादी नहीं होती और न इधर-उधर जाने के लिए ही वे उतनी स्वतंत्र होता हैं, जितनी अफ्रीका की महिलाएँ ।

”निर्णय, आत्म-अभिव्यक्ति एवं स्वतंत्रता से वंचित दक्षिण एशिया की करोड़ों महिलायें ऐसी हैं जो अपने या बच्चों के हित में काम करने के सम्बन्ध में न तो ज्ञान रखती है और न साधन या आजादी ।” पोषण के सम्बन्ध में लैंगिक असमानतायें शिशुकाल से बालिग होने की उम्र तक दिखाई पडती है । असलियत में, छोटे बच्चों में कुपोषण का एक बहुत बडा कारण जेन्डर ही है तथा 5 वर्ष से कम आयु की लडकियों में कुपोषण सीधा अथवा अर्न्तनिहित कारण है जिसकी वजह से उनकी मौत हो जाती है ।

शैशव अवस्था में लडकियों को माँ का दूध कम बार पिलाया जाता है । इसी प्रकार लडकियों को बचपन और बालिग होने पर भी दूध कम दिया जाता है । इसके विपरीत इस सम्बन्ध में लडकों को तरजीह दी जाती है ।

बालिग महिलायें पुरुषों की तुलना में प्रतिदिन करीब एक हजार केलारी कम प्राप्त करती है, जैसा कि पंजाब में किये गये एक अनुमान से पता चला है देश के विभिन्न हिस्सों में घरेलू खान-पान की मात्रा की तुलना करने पर ये पता चला है कि पुरुषों और महिलाओं के बीच पोषक तत्व की समानता उतार भारत में दक्षिण राज्यों की तुलना में कम है ।

महिलाओं के मामले में पोषण तत्वों से वंचित होने के दो बडे नतीजे सामने आते है – वे अपने पूर्ण विकास संभावनाओं को प्राप्त नहीं कर पाती और खून की कमी का शिकार होती हैं । गर्भाधान के समय ये दोनों खतरनाक सकेत है ।

शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में खून की ये कमी क्रमशः 40 से 50 प्रतिशत और 50 से 70 प्रतिशत होती है । इससे बच्चा पैदा होने के समय परेशानी होती है और कई बार माँ और शिशु की मौत भी हो जाती है तथा इस प्रकार के बच्चों का जन्म के समय वजन भी कम होता है ।

एक अध्ययन से ये पता चला है कि कोलकाता में 6-14 आयु वर्ग की 95 प्रतिशत से अधिक, हैदराबाद क्षेत्र में करीब 67 प्रतिशत, नई दिल्ली क्षेत्र में 73 प्रतिशत और मद्रास क्षेत्र में करीब 18 प्रतिशत लडकियाँ खून की कमी से पीडित हैं । ये अध्ययन दर्शाता है कि ”15-24 और 25-44” वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं में खून की कमी के मिलते-जुलते स्वरूप और स्तर मिलते हैं ।

गर्भाधान के दौरान खतरा होने के अतिरिक्त खून की कमी से कई तरह की समस्यायें पैदा हो सकती हैं । महिलायें टी.बी. जैसी बीमारियों का शिकार हो सकती हैं और घरेलू काम, बच्चों की देखभाल तथा खेती के काम काज में ऐसी महिलाओं का ऊर्जा स्तर कम हो जाता है । खून की कमी की अधिक गंभीर अवस्था होने पर शारीरिक कामकाज में इतनी ताकत खर्च हो जाती हे कि महिला को धीरे-धीरे चलना भी दूभर हो जाता है ।

महिलाओं का खराब स्वास्थ्य:

गरीब महिला के लिये सामान्य जीवन चलाना भी सबसे बडा दूभर काम होता है । कम समय तक लडकी को दूध पिलाने का जो रिवाज है उससे पता चलता है कि लडका पाने की लालसा कितनी तीव्र होती है । यदि महिलायें लडका पाने के सम्बन्ध में बहुत अधिक लालायित होती हैं तो वे कोशिश करती है कि बच्ची के जन्म के तुरन्त बाद ही गर्भ धारण कर लें ।

इसके विपरीत यदि लडका जन्म लेता है तो वे अगला गर्भधारण नहीं करना चाहती और इस नये बच्चे पर ही अधिक से अधिक ध्यान देती हैं । लडकी को किस तरह माता-पिता उपेक्षित करते हैं ये उनकी बीमारी के दौरान देखा जा सकता है । बीमार होने पर छोटी बच्चियाँ डाक्टरों के पास इलाज के लिये अपने भाइयों की तुलना में कम ले जायी जाती हैं ।

पंजाब में किये गये एक अध्ययन से पता चला है कि इलाज पर होने वाला खर्च लडकों के सम्बन्ध में लडकियों की तलना में 2.3 गुना अधिक होता है । बालिग के तौर पर महिलाओं को स्वास्थ्य सम्बन्धी देखभाल पुरुषों की तुलना में कम उपलब्ध होती है । वे ये भी कम जताती हैं कि वे वास्तव में बीमार हैं । बहुत अधिक बीमार होने पर ही वे मदद मांगती हैं या मदद उन्हें उपलब्ध करायी जाती है ।

ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में मौजूद रोगियों पर किये गये अध्ययन से पता चला है कि देश के सभी हिस्सों में ज्यादा पुरुषों का इलाज किया जाता है, महिलाओं का नहीं । यह अतर उत्तर भारत के अस्पतालों में दक्षिण के अस्पतालों की तुलना में कहीं अधिक दिखाई पडता है ।

इससे पता चलता है कि महिलाओं को अहमियत देने के मामले में क्षेत्रीय भेदभाव कितना अधिक है । अपने दुख-दर्द महिलायें दूसरे के साथ प्रायः नहीं बाटतीं तथा पुरुष डाक्टरों द्वारा उनकी जाँच पडताल करने में भी कई बार आपत्ति होती है ओर इससे उन्हें पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा मिलने में और अधिक कठिनाई आती है ।

मातृत्व मृत्यु दर:

पूरे विश्व में भारत में मौजूद ग्रामीण क्षेत्रों में माताओं की मृत्यु दर सबसे अधिक पायी जाती है । इस मृत्यु दर का एक बहुत बडा कारण ये है कि ग्रामीण महिलायें गर्भधारण के सम्बन्ध में स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करने के लिये अधिक इच्छुक नहीं रहतीं ।

इसे प्रायः अस्थायी अवस्था समझा जाता है जो कुछ समय बाद समाप्त हो जायेगी । पूरे देश के अनुमानो से ये पता चला है कि 40-50 प्रतिशत महिलायें ही बच्चों के जन्म के पूर्व स्वास्थ्य सेवा प्राप्त कर पाती है । बिहार, राजस्थान, उडीसा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों के प्रमाण ये साबित करते हैं कि माता और बच्चे के स्वास्थ्य सुरक्षा के संबंध में किये जाने वाले पंजीकरण ग्रामीण क्षेत्रों में 5-22 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्रों में 21-51 प्रतिशत पाये जाते हैं ।

एक ऐसी महिला जिसे पहले भी गर्भवती होने पर कई तरह की परेशानियों झेलनी पडी हे उसका भी आमतोर पर घरेलू ढंग से इलाज किया जाता है । इसके तीन कारण हैं – गर्भवती महिला के इलाज का निर्णय सास और उसका पति करता है, आर्थिक कारण तथा यह भय कि बीमारी की तुलना में इलाज कहीं ज्यादा हानिप्रद है ।

ये अनुमान किया जाता है कि 15-29 वर्ष के आयु वर्ग की महिलाओं में एक चौथाई मौतों का कारण गर्भधारण सम्बन्धी समस्यायें होती हैं तथा दो तिहाई से अधिक मौतें ऐसी होती है जिन्हें टाला जा सकता था या रोका जा सकता था ।

भारत में होने वाली माता की प्रत्येक मौत के लिये करीब 20 और महिलायें खराब स्वास्थ्य का शिकार रहती है । महाराष्ट्र की ग्रामीण महिलाओं के सम्बन्ध में एक ग्राम स्तर अध्ययन से पता चला है कि शारीरिक स्वास्थ्य की जाँच करने पर 90 प्रतिशत महिलायें एक या अधिक स्त्री रोग से पीडित थीं ।

गर्भ निरोधक उपाय:

महिलाओं का स्वास्थ्य प्रजनन सेवाओं की उपलब्धता न होने तथा अच्छी सेवायें न मिलने की वजह से प्रभावित होता है । लगमग 24.6 मिलियन जोडे जो कि शादीशुदा महिलाओं का लगभग 18 प्रतिशत है, उन्हें और बच्चे नहीं चाहिये, परन्तु वे गर्भनिरोधक का प्रयोग नहीं करते (आपरेशन रिसर्च ग्रुप, 1990) । इस न पूरी होने वाली आवश्यकता के कारणों को आमतौर पर बिल्कुल नहीं समझा जाता ।

परन्तु तमिलनाडु में किये गये एक गुणवत्ता अध्ययन से पता चला है कि परिवार में महिलाओं के पास निर्णय करने की शक्ति न होने, गर्भनिरोधक सलाह प्राप्त करने में आने वाली समस्याओं, बच्चे की मौत होने का भय तथा गर्भनिरोधक सेवा की अच्छी गुणवत्ता न होने से बड़ी कठिनाई आती है । (रवीन्द्रन 1993) कुछ अनुमानों से ये पता चला है कि एक वर्ष के दौरान भारत में लगभग 5 मिलियन गर्भपात होते हैं, जिनमें से बहुत बडी संख्या गैर कानूनी गर्भपातों की है ।

इसके फलस्वरूप गर्भपात से मौत से जुडी बहुत की घटनायें हो जाती हैं । यद्यपि भारत में गर्भपात को 1972 से कानूनी ठहराया जा चुका है, अध्ययनों से यह पता चलता है कि यद्यपि आधिकारिक नीति के अनुसार, गर्भाधान समापन सेवायें व्यापक रूप से उपलब्ध है, फिर भी वास्तविकता में देखा जाये तो विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भपात सेवाओं से सम्बन्धित दिशा निर्देश अत्यन्त सीमित हैं । वर्ष 1981 में 6200 फिजीशियनों को गर्भपात करने के सम्बन्ध में प्रशिक्षण दिया गया जिनमें से ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ 1600 फिजीशियन ही कार्य कर रहे थे ।

माँ के स्वास्थ्य पर कार्य का प्रभाव:

काम-काज की स्थितियों से समय पूर्व आप असामान्य बच्चे पैदा होते है । महिलायें ऐसे काम करती हैं कि आमतौर पर उन्हें एक स्थिति में लम्बे समय तक बना रहना पडता है । इससे उनके प्रजनन स्वास्थ्य पर बडा विपरीत प्रभाव पडता है ।

महाराष्ट्र के तटिय क्षेत्र में जहाँ धान की खेती होती है, में किये गये एक अध्ययन के अनुसार ये पाया गया है कि 40 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु जुलाई से अक्टूबर के दौरान हुयी अध्ययन से यह भी पता चला कि ज्यादातर जन्में ऐसे बच्चे समय पूर्व पैदा हुये थे अथवा असामान्य थे । अध्ययन में इसका कारण ये बताया कि जुलाई एवं अगस्त के दौरान जब धान की रोपाई होता है तो कई बार महिलाओं को लम्बे समय तक उकडू बैठना पडता है ।

महिलायें अशिक्षित हैं:

पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं और लडकियों को शिक्षा बहुत कम मिल पाती है, क्योंकि सामाजिक मानदण्ड ऐसे होते है और उनकी सुरक्षा का भी भय रहता है । भारत में स्कूल न जाने वाली कामकाजी लडकियों की जनसंख्या सबसे ज्यादा है ।

भारत का संविधान लडकों और लडकियों दोनों को 14 वर्ष की उम्र तक निशुल्क प्राथमिक स्कूल शिक्षा की भारी देता है । इस लक्ष्य को बार-बार दोहराया जाता है । परन्तु भारत प्राथमिक शिक्षा सार्वभोमिक नहीं है । समग्र रूप से देखा जाए तो महिलाओं की साक्षरता दर 39 प्रतिशत है, जबकि पुरुषों की यह दर 64 प्रतिशत है ।

चार बडे उत्तर भारतीय राज्यों अर्थात बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में राष्ट्रीय औसत से भी साक्षरता दर कम है । वर्ष 1991 में यह दर 25 प्रतिशत थी । 1981 की जनगणना से यह पता चला है कि स्कूलों में लडकियों की उपस्थिति काफी कम थी और 5 से 14 वर्ष के आयु-वर्ग की स्कूल जाने वाली लडकियों की संख्या कुल लडकियों की संख्या का एक-तिहाई से अधिक नहीं थी और ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह संख्या और भी कम थी ।

यद्यपि 1947 में आजादी हासिल करने के बाद, भारत में पर्याप्त प्रगति हुई है, क्योंकि इसके पहले 8 प्रतिशत से कम महिलाएँ ही साक्षर थीं । फिर भी जनसंख्या वृद्धि के साथ उपलब्धियों हासिल नहीं हो सकी है । वर्ष 1981 की तुलना में, वर्ष 1991 में निरक्षर महिलाओं की संख्या 10 मिलियन ज्यादा थी ।

सोनल देसाई जेंडर इनइक्वलिटीज एण्ड डेमोग्राफिक बिहैवियर में कहती हैं कि लडकियों की शिक्षा के संदर्भ में माता-पिता की अनिच्छा का कारण महिलाओं की स्थिति है । कई कारण हैं, जिनके चलते माता-पिता अपनी लडकियों को शिक्षा नहीं दिलाते ।

पहला कारण यह है कि लडकियों की शिक्षा से माता-पिता को कोई लाभ नहीं मिलता और चूंकि उनकी भावी भूमिका केवल प्रजनन की है अथवा खेती में श्रमिक के रूप में काम करने की है, उन्हें किसी औपचारिक शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं होती ।

चूंकि शिक्षा हासिल करने में सभी लड़के व्यस्त रहते हैं, अतः श्रमिक के रूप में लडकियों पर निर्भरता बहुत अधिक बढती जा रही है । लडकियों अपने भाईयों की जगह खेतों में काम करती हैं और घरेलू जिम्मेदारियाँ तो निभाती ही हैं । स्कूल न जाने वाली करीब 40 मिलियन गैर कामकाजी लडकियों का एक बडा हिस्सा घर में ही कैद रहता है क्योंकि उन्हें घरेलू काम-काज निपटाना पडता है ।

माता-पिता का यह दायित्व रहता है कि वे अपनी लडकी का ऐसे परिवार में रिश्ता करें जहां जाकर वो पतिव्रता के रूप में अपना दायित्व वहन करें । सोनल देसाई इस बात का भी जिक्र करती हैं कि स्कूल न भेजने का कारण ये है कि लडकी की पवित्रता के सम्बन्ध में खतरा महसूस करना है ।

जब स्कूल कहीं दूर स्थित होते हैं, साथ ही पुरुष अध्यापक होते हैं तथा लडके लडकियाँ साथ-साथ पढते हैं तो माता-पिता को ये लगता है कि उनकी लडकियों की पवित्रता के लिये खतरा बना रहता है । इन अवरोधों को दूर करने के लिये कोई कारगर उपाय नहीं दिखाई पडते ।

चूँकि लडकियों कई बार श्रमिक के रूप में काम भी करती हे, फिर भी स्कूल के घंटों में कोई लचीलापन नहीं रहता । बहुत से गाँवों में तो स्कूल होते ही नहीं । साथ ही, भारत की प्राथमिक एवं मिडिल स्कूल अध्यापकों में से एक तिहाई से भी कम अध्यापक महिलायें हैं ।

महिलाओं पर प्रदूषण का प्रभाव:

महिलाओं के स्वास्थ्य पर हवा और पानी से पैदा हुये प्रदूषण और स्वच्छता के न होने का भी बहुत अधिक असर पडता है और औद्योगिक कचरा भी महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते है । संध्या वेंकेटेश्वरन ने इनवायरनमेन्ट डेवलपमेन्ट एण्ड द जेन्डर गैप में लिखा है कि महिलाओं में मौजूद कुपोषण की बडी दर होने तथा उनका निम्न मेटाबोलिज्म और अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याये उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती है तथा रासायनिक तनाव को झेलना उनके लिये कठिन हो जाता है ।

घरेलू बायोमास से बनने वाला धुआं जो तीन-चार घटे तक चूल्हे में लकडी गोबर और फसलों की बची हुयी डंठल आदि के जलने से पैदा होता है, वह 20 पैकेट सिगरेट पीने से पैदा हुये घुये के बराबर होता है । महिलायें कम से कम तीन घटे खाना बनाने में लगाती है और धुआं निकलने की प्रायः समुचित व्यवस्था भी नहीं होती, जिसके चलते उन्हें आँखों की समस्या, सास की तकलीफ क्रानिक, ब्राकायटिस और लग कैंसर तक हो जाता है ।

एक अध्ययन (1991) में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ये लिखा है कि जो महिलायें खुले चूल्हे में खाना बनाती हैं, उनसे पैदा होने वाले बच्चे करीब 50 प्रतिशत तक असामान्य हो सकते हैं । किसी व्यक्ति में खून की कमी होने पर वह कार्बन-मोनोआक्साईड के विषैलेपन का शिकार हो सकता है और ये गैस खुले चूल्हे से निकलने वाले प्रदूषणों में प्रमुखता से पायी जाती है ।

ऐसी महिलायें जिनमें खून की कमी पायी जाती है वे प्रजनन उस का 25 से 30 प्रतिशत तक होती हैं । साथ ही 3 महीने की गर्भवती होने की स्थिति का 50 प्रतिशत और इन कारणों से कार्बन मोनोआक्साइड के विषेलेपन की वह कहीं ज्यादा शिकार हो सकती हैं ।

इसके अलावा जनसंख्या में वृद्धि होने के साथ-साथ कचरे से पैदा होने वाली बीमारियाँ जैसे हुकवर्म आदि बहुत व्यापक पैमाने पर हो जाती हैं । जो लोग नंगे पैर काम करते हैं वे आम तौर पर ऐसे रोगों के शिकार हो जाते हैं । ये देखा गया है कि ग्रामीण महिलाओं में जो बहुत अधिक खून की कमी पायी जाती है उसका एक सीधा कारण हुकवर्म की बीमारी है ।

महिलायें अधिक श्रम करती हैं:

महिलायें ज्यादा घंटे तक काम करती हैं और उनका काम पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा कठिन होता है । फिर भी पुरुष ये कहते हुये सुने जाते हैं कि ‘महिलायें बच्चों की तरह केवल खाती रहती और कुछ नहीं करतीं ।’ जबकि पुरुषों की तुलना में करीब दुगना काम महिलायें करती हैं ।

महिलाओं का खेती में भी बड़ा योगदान रहता है चाहे वो, जीर्वाकोपार्जन के लिये खेती हो या व्यवसायिक खेती दोनों में पुरुषों की तुलना में कार्य और समय दोनों नजरियों से महिलाओं का योगदान अधिक रहता है । ”महिलायें किस सीमा तक काम करती हैं इस तथ्य को भारतीय हिमालय में किये गये एक अध्ययन में बखूबी उजागर किया । इससे पता चला है कि एक वर्ष के दौरान एक हैक्टेयर खेत में दो बैल 1064 घंटे काम करते हैं, एक आदमी 1212 घंटे और एक महिला 3485 घंटे ।”

आन्ध्र प्रदेश (माइज 1986) में ये पाया गया कि खेती के मौसम में महिला खेतिहर श्रमिक के काम के घटे एक दिन में 15 घंटे तक होते हैं अर्थात् तडके 4 बजे से रात 8.00 बजे तक । इस बीच केवल एक घंटे का ही आराम मिलता है ।

इसके विपरीत पुरुष श्रमिक सात से आठ घंटे तक ही अर्थात् तडके 5.00 बजे से सुबह 10 या 11 बजे तक ही काम करता है ओर पुन: दोपहर बाद 3.00 बजे से शाम 5.00 बजे तक ही काम करता है । महिला और पुरुष खेतिहर श्रमिक द्वारा खेती के काम में समय और शक्ति देने के सम्बन्ध में किये गये एक अन्य अध्ययन (बाटलीवाला 1982) से ये जाहिर होता है कि प्रत्येक घर के कुल मानव घंटों में से महिला का योगदान 53 प्रतिशत रहता है जबकि पुरुष का मात्र 31 प्रतिशत ।

शेष योगदान बच्चों से मिलता है । रॉय बर्मन (मेनन 1991 में) ने खेती के काम-काज से पुरुष की प्रधानता को जोडा है । खेत जुताई के काम में पुरुष अपनी निपुणता के एकाधिकार को बनाये रखना चाहता है जिसका पता इस बात से लगता है कि करीब-करीब पूरे भारत में एक प्रकार का प्रतिबंध प्रचलित है और वो ये है कि महिलायें हल को न पकडें । बहुत से समाजों में महिला को हल छूने भी नहीं दिया जाता ।

माइज ने यह भी कहा है कि पुरुषों द्वारा जहाँ ऐसे काम किये जाते हैं जिनमें मशीनरी और पशुओं का इस्तेमाल होता है, और इस प्रकार पशु पनबिजली, मैकेनिकल या विद्युत ऊर्जा का भरपूर प्रयोग होता है । इसके विपरीत महिलायें लगभग शारीरिक श्रम पर ही आश्रित रहती हैं और केवल अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल करती हैं ।

धान की रोपाई अत्यन्त श्रमसाध्य और थकाने वाला काम है और यह काम आम तौर पर महिलायें ही करती हैं, बिना किसी औजार का इस्तेमाल किये । “महिलायें खेती में जो काम करती हैं उन सभी कामों में मदद करने की कला दस वर्ष की लडकी सीखने लगती है । माइज ने लक्ष्मी नामक 3 साल की एक बच्ची का उदाहरण प्रस्तुत किया है जो अपनी माँ के साथ धान रोपाई की पौधों को अलग-अलग छाँटने में मदद कर रही थी । इसके उल्टे लडके इस रोपाई में या निराई जैसे काम में शायद ही कभी मदद कर रहे हों । अलबत्ता लडके जुताई व सिंचाई के काम में मददगार थे” महिलाये केवल ज्यादा काम ही नहीं करती बल्कि पुरुषों की अपेक्षा उनके काम में मेहनत भी कहीं अधिक लगती है ।

रोपाई और निराई के काम में महिलायें पूरा दिन खप जाती हैं और उन्हें कीचड भरे खेतों में हाथ से रोपाई और निराई करना पडता है साथ ही तपती धूप में पूरे दिन काम करती है, जबकि पुरुषों का काम जैसे खेत जोतना या सिचाई करना आमतौर पर तडके शुरू किया जाता है और सूर्य की प्रचंड गर्मी होने तक खत्म कर दिया जाता है ।

माईज का ये तर्क है कि चूंकि महिलाओं का काम ऐसा होता है कि पुरुषों की तरह औजारों का इस्तेमाल नहीं करती और आमतौर पर कृषि कार्य उनकी शारीरिक ताकत पर निर्भर करता है, अतः इसे अकुशल और अलाभकारी काम समझा जाता है ।

इस आधार पर उन्हें कम मजदूरी भी दी जाती है, जबकि वे पुरुषों के मुकाबले ज्यादा मेहनत करती हैं और ज्यादा घंटों तक काम करती है । इसके विपरीत, उत्तर प्रदेश में किये गये एक अध्ययन से ये पता लगा है कि ”पुरुष बहुत अनमनेपन से ही ये स्वीकार करते हैं कि महिलायें वाकई काम करती हैं । इस क्षेत्र के अनुसंधानकर्ताओं को ये बार-बार बताया गया कि महिलायें बच्चों की ही तरह केवल खाती हैं और कुछ नहीं करतीं” ।

महिलाओं के काम को मान्यता नहीं:

महिलाओं के काम को मुश्किल से ही मान्यता मिल पाती है । बहुत से लोगों का यह विचार है कि महिलाएं आर्थिक दृष्टि से पुरुषों पर आश्रित रहती हैं, अतः परिवार में उनका असर कम रहता है । आय अर्जित करने वाली गतिविधियों में भागीदारी के बढ जाने से, न केवल पारिवारिक आय में वृद्धि होगी बल्कि लैगिक असमानता में भी कमी आयेगी ।

इस मसले पर भारत में ज्यादा चर्चा नहीं होती क्योंकि अध्ययनों से ये पता चलता है कि श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी कम होती है । महिलाओं के विषय में उनके योगदान को ठीक से न दिखाने का एक कारण ये है कि उनके काम को आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं समझा जाता ।

स्वनियोजित महिलाओं तथा अनौपचारिक क्षेत्र में महिलाओं के राष्ट्रीय आयोग की एक रिपोर्ट में एक राज्य के सामाजिक कल्याण निदेशक ने यह कहा कि ”हमारे राज्य में असगठित क्षेत्र में कोई महिलाएँ नही हैं ।” जब आयोग न छानबीन की और पूछा कि ”क्या कोई महिलाएं ऐसी हैं जो जलाऊ लकडी इकट्‌ठा करने के लिए जंगल जाती हैं?

क्या ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली महिलाएँ पशु पालती है?” निदेशक ने उत्तर दिया ”क्यों नहीं, बहुत सी औरतें है, जो इस प्रकार के काम करती हैं? जनसंख्या के एक बडे हिस्से को महिलाओं के इस प्रकार के काम नहीं दिखाई पडते ।

यदि सभी गतिविधियाँ जैसे किचेन गार्डेन और मुर्गी पालन, आटा पीसना, पानी भरना और जलाऊ लकडी इकट्‌ठा करना आदि कार्यों पर ध्यान दिया जाये तो ग्रामीण क्षेत्रों की 88 प्रतिशत महिलायें और शहरी क्षेत्र की हठ प्रतिशत महिलाये आर्थिक दृष्टि से इस प्रकार के अधिकतम लाभकारी काम करेगा ।

पारिवारिक जमीन या व्यापार में महिलाओं के रोजगार को न तो पुरुषों द्वारा डोर न महिलाओं द्वारा ही आर्थिक दृष्टि से लाभकारी माना जाता हे । इस प्रकार के काम से अर्जित आमदनी पर प्रायः पुरुषों का नियंत्रण रहता है । इस प्रकार के काम से परिवार में धन के आवंटन में महिलाओं की भागीदारी नहीं बढ पाती ।

परिवार आधारित टेक्सटाईल श्रमिकों के सम्बन्ध में 1992 में किये गये अध्ययन से ये पता चला है कि जो बच्चे हैण्डलूम मिल में काम कर रहे थे उन्हें केवल जेब खर्च ही मिलता है, जबकि बालिग महिलाये और लडकियों वो भी नहीं पातीं ।

कठिन परिस्थितियों में महिलाएं:

महिलाओं की स्थितियों की विविधता की मान्यता में तथा विशेष रूप से वंचित समूहों की जरूरतों की अभिस्वीकृति में, उन्हें विशेष सहायता प्रदान करने के लिए साधन तथा कार्यक्रम उपलब्ध कराये जाएंगे ।

ये समूह चरम गरीबी वाली महिलाओं, निराश्रित महिलाओं, संघर्ष स्थितियों में महिलाओं, प्राकृतिक आपदाओं द्वारा प्रभावित महिलाओं, अल्प विकसित क्षेत्री की महिलाओं, विकलांग विधवाओं, बुजुर्ग महिलाओं, कठिन परिस्थितियो में एकल महिलाओं, कुटुम्ब की मुखिया महिलाओं, रोजगार से विस्थापित महिलाओं, प्रवासियों, महिलाएँ जो वैवाहिक हिंसा की शिकार हों, वियुक्त महिलाओं और वेश्याओं आदि को शामिल करते हैं ।

विवाह:

अधिकांश विवाहों में महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की रहती है । बाहरी संसार के साथ सम्पर्क और सम्बन्ध ऐसे तथ्य है जो इस बात का संकेत देते हैं कि महिलाओं को उनके दैनिक जीवन में कितनी संभावनायें (अवसर) उपलब्ध है । महिलाओं की स्थिति पर घर के अन्दर और बाहर दोनों क्षेत्रों में निर्णय करने की जो स्वायतता और क्षमता उपलब्ध रहती है ।

उसका दुष्प्रभाव उनके दैनिक जीवन पर भी पडता है । ”उत्तर भारत में महिलाओं की स्थिति ओर भी खराब है । उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों का परम्परागत हिन्दू समाज बडे छोटे की भावना और पुरुषवादी वर्चस्व से प्रभावित है । इस बात का पता विवाह के रीति-रिवाजों में बखूबी चल जाता है ।

उत्तर भारतीय हिन्दूओं से ये उम्मीद की जाती है कि वे निर्धारित सीमाओं के अन्दर ही विवाह करेंगे । लडका और लडकी परस्पर सम्बन्धित नहीं होने चाहिये । विवाह में उन दोनों का ज्यादा दखल भी नहीं होता । आमतौर पर लडका लडकी के गाँव से बाहर का होना चाहिये ।”

अमूमन लडकी पक्ष को वर पक्ष की तुलना में सामाजिक और परम्परा के तौर पर निम्न स्तर का समझा जाता है और इसलिये दहेज की आवश्यकता बन जाती है । शादी के बाद लडकी अपने पति के परिवार में चली जाती है । इस प्रकार नवविवाहिता लडकी एक सर्वथा अपरिचित स्थान और वातावरण में पहुँचती है ।

इस वातावरण में बड़ी-झुकी महिलाओं की प्रमुखता रहती है और पतियों की हैसियत के अनुसार ही ऐसी लडकियों को परिवार में सम्मान मिलता है । चूंकि पति-पत्नी के बीच के भावनात्मक रिश्ते पितृ प्रधान समूह की मजबूती के लिये खतरा समझा जाता है, उत्तरी भारत के रीति-रिवाज लिंगायत भेदभाव की अनुमति देते हैं और पति-पत्नी के बीच संपर्क सम्बन्ध पर बंदिश लगाते हैं ।

एक युवा भारतीय लडकी का पालन-पोषण इस प्रकार किया जाता है कि वह यह मान कर चलती है कि उसकी निजी इच्छा-आकांक्षा उसके पति तथा पति के परिवार के अधीन होती है । नवविवाहिता युवा महिला का प्राथमिक दायित्व तथा पति के परिवार में मौजूद उंच-नीच व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी हैसियत बनाने का एक मात्र साधन यह रहता है कि वह लडके पैदा करे ।

सोनाल्दे देसाई इस बात का जिक्र करती है कि उत्तर भारत में ये भावना बहुत ज्यादा प्रचलित है कि वृद्धावस्था में लडके ही आर्थिक सुरक्षा प्रदान करते है और इसी के चलते माता-पिता जब अपनी शादीशुदा लडकियों के घर जाते हैं तो वहीं न तो भोजन आदि करते हैं और न अन्य किसी प्रकार की मेहमानी स्वीकार करते है ।

फिर भी, चूंकि महिलाओं की स्वतन्त्र आमदनी बहुत कम होती है और आय पर उनका नियंत्रण भी नहीं होता, अतः ऐसी लडकियों अपने माता-पिता को आर्थिक सहयोग दे भी नहीं पातीं, चाहे ऐसे माता-पिता इस सहयोग को स्वीकार करने की इच्छा भी रखते हों ।

इसके विपरीत दक्षिण में लडकी परम्परागत रूप से अपने माँ के भाई से विवाह करती है अथवा माँ के भाई के लडके से । इस प्रकार की व्यवस्था का महिलाओं पर बहुत अधिक प्रभाव पडता है । दक्षिण भारत में पुरुष कई बार ऐसी महिलाओं से विवाह करते हैं जिनके वे सम्बन्धी होते हैं ।

इसके चलते उत्तर भारत में पितृ और मात सम्बन्धियों में जिस प्रकार का अन्तर दिखायी पडता है वो दक्षिण में नहीं । ये काफी संभावना रहता है कि महिलायें अपने पैतृक घरों के आस-पास पारिवारिक रिश्तेदारी में ही विवाह कर लें और वे अपने माता-पिता के पारेवारीजनों से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखे ।

पिछले कई दशकों से शादी के स्वरूप में बहुत अधिक अन्तर आया है । सामाजिक आर्थिक और जनसंख्या सम्बन्धी घटनाओं ने निकट सम्बन्धों की शादियों को अब कम प्रचलित बना दिया है और लडकी के मूल्य की जगह अब दहेज प्रथा उत्तर भारत की ही तरह प्रचलित हो गयी है । फिर भी जब तक दक्षिण में मौजूदा घनिष्ठ सम्बन्धो की इस तरह की शादियाँ प्रचलित रहेंगी, तब तक दक्षिण भारतीय महिलाओं की अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति को कोई खतरा नहीं पैदा होगा ।

उत्तराधिकार:

महिलाओं के उत्तराधिकार सम्बन्धी अधिकार आमतौर पर बहुत सीमित होते हैं और उनकी बार-बार अनदेखी की जाती है । 1950 के दशक के मध्य में, हिन्दी पर्सनल लॉज में, जो हिन्दुओं, बौद्धों, सिखों और जैनियों पर लागू होते थे, फेरबदल किया गया और बहुविवाह को प्रतिबंधित कर दिया गया तथा महिलाओं के उत्तराधिकार, गोद लेना एवं तलाक के अधिकार समाप्त कर दिए गए ।

मुस्लिम पर्सनल लीज हिन्दू पर्सनल लॉज से काफी अलग है और वै बहुविवाह की अनुमति देते हैं । महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने वाले विभिन्न कानून होने के बाबजूद, परम्परागत पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण अब भी प्रचलित हैं तथा घरों में इसे और मजबूती मिली है । हिन्दू कानून के अंतर्गत, पुत्रों का पैतृक सम्पत्ति में अलग से हिस्सा रहता है । इसके विपरीत, पुत्रियों का सम्पत्ति में हिस्सा पिता के प्राप्त हिस्से पर आधारित होता है ।

अतः पिता वास्तव में अपनी लडकी को पैतृक सम्पत्ति में अपना हिस्सा छोडते हुये उत्तराधिकार से वंचित कर सकता है, जबकि पुत्र का हिस्सा अपने अधिकार के तौर पर बना रहेगा इसके अलावा विवाहित लडकियां, चाहे उन्हें वैवाहिक उत्पीडन ही क्यों न सहना पड रहा हो, पैतृक घर में आवासीय अधिकर नहीं रखतीं ।

यद्यपि महिलाओं की रक्षा के लिये बने कानूनों को पर्याप्त ढंग से मजबूत नहीं बनाया गया है । इसके फलस्वरूप अमल में देखे तो महिलायें भूमि और सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं रखतीं और ये ही चीजें हैं जो आय तथा लम्बी अवधि की आर्थिक सुरक्षा का प्रमुख स्रोत बनती हैं । इस बहाने कि कृषि जोत विभाजित न हो जाये, बहुत से राज्यों ने सफलतापूर्वक विधवाओं और लडकियों को कृषि भूमि के उत्तराधिकार से वंचित कर रखा है ।

महिलाओं के प्रति गलत व्यवहार:

आज विश्व में महिलाओं एवं लडकियों के प्रति होने वाली हिंसा एक ऐसी बुराई है जो बहुत व्यापक रूप से मानव अधिकार का उल्लंघन है । विश्व की महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के विषय में बातचीत करने का अर्थ है एक बडी समस्या से जूझना ओर इसे एक उदाहरण के रूप में समझा जाये तो मानो ये एक अंधा कुआं है जिसमें सामूहिक दुख-दर्द का अपार संसार भरा पडा है और इससे निकलने वाली विरोध की आवाजें मुखर नहीं हो पाती हैं ।

जहाँ असहनीय स्थिति के सम्बन्ध में गुस्सा और आक्रोश होना चाहिये, वहीं अस्वीकृत का स्वर ज्यादा सुनायी पडता है और यथास्थित को स्वीकार करने की एक सामान्य बेबसी झलकती है । महिलाओं के प्रति पुरुषों की हिंसा एक विश्वव्यापी समस्या है ।

यद्यपि हर महिला इसका एहसास नहीं करती और बहुत सी महिलाएँ इसकी उम्मीद भी नहीं करतीं, अधिकांश महिलाओं के जीवन में हिंसा का भय बना ही रहता है । साथ ही इसका प्रभाव उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व पर दिखायी पडता है । हिंसा का भय ही है, जिसके चलते महिलायें घर के बाहर के कार्यकलाप में भागीदारी नहीं करतीं ।

घर के अन्दर महिलायें और लडकियाँ शारीरिक और यौन उत्पीडन का शिकार हो सकती हैं और कई बार ऐसे कृत्यों को सांस्कृतिक रूप से जायज भी ठहराया जाता हे । इन सब बातों से जीवन के प्रति महिलाओं का दृष्टिकोण बदलता है ओर उनकी निजी आशा और आकांक्षायें आकार लेती हैं ।

महिलाओं के रास्ते में सबसे बडी रुकावट ये है कि घर के बाहर उन्हें हमेशा असुरक्षा बनी रहती है । इस बात का ऐहसास करते हुये उन्हें लगता है घर के बाहर के उत्पीडन की तुलना में घर में होने वाला उत्पीडन फिर भी सहा जा सकता है । महिलायें घर और समाज में अपने दोयम दर्जे को न केवल मंजूर कर लेती है बल्कि इसे कई बार बेहतर समझती हैं ।

हाल के वर्षों में भारत में महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचारों में बहुत अधिक बढोत्तरी हो गयी है । हर 26 मिनट में किसी महिला के साथ छेड-छाड होती है । हर 34 मिनट में एक बलात्कार होता है । हर 42 मिनट में यौन उत्पीडन की घटना घट जाती है । प्रत्येक 43 मिनट में किसी महिला का अपहरण हो जाता है ।

इसी तरह, हर 93 मिनट में कोई न कोई महिला दहेज उत्पीडन का शिकार होते हुये जला दी जाती है । जिन बलात्कारों की सूचना मिलती है उनमें से अधिकांश लडकियाँ 18 से कम उम्र की होती हैं और अधिकांश ऐसे मामले में रिपोर्ट भी नहीं किये जाते । यद्यपि कठोर दण्ड की व्यवस्था है फिर भी कई बार दोष सिद्ध नहीं हो पाता ।

चुनिंदा गर्भपात:

लडकों के प्रति बहुत अधिक चाहत होने के चलते लड़कियों को जन्म होते ही मार देने और लिंग निर्धारण से जुडे गर्भपात जैसी घटनायें कई बार होती हैं । मुबई के एक अस्पताल में किये गये एक अध्ययन से ये पता चला है कि 96 प्रतिशत लडकियों के भ्रूण की हत्या कर दी गयी जबकि लडकों के भ्रूण की हत्या बहुत कम हुयी थी ।

”राष्ट्र के लिंग अनुपात में हाल में आयी गिरावट का मुख्य कारण ये रहा है कि बहुत सी कन्याओं की गैर आनुपातिक रूप में हत्या कर दी गयी, सरकारी अफसरों का ऐसा मानना है । 1971 में प्रत्येक 1000 (एक हजार) पुरुषों में महिलाओं की संख्या 930 थी । एक दशक बाद ये आँकडा बढ कर 934 हो गया । परन्तु वर्ष 1991 तक इस आंकडे में बढोत्तरी के बदले अनुपात में गिरावट आयी और वह 1971 अंक से भी कम होकर मात्र 927 रह गया । यह लैंगिक अनुपात विश्व में सबसे कम है ।”

सोनाल्दा देसाई से प्राप्त रिपोर्ट ये दर्शाती है कि मुंबई विज्ञापन जगत में लिंग निर्धारण परीक्षण के पोस्टरों से ये पता चलता है कि ”शुरू में रु. 500 खर्च कर देना बेहतर है, न कि रु 50,000 (दहेज के रूप में) खर्च करना ।”

सरकार ने लिंग निर्धारण और कन्या भ्रूण हत्या को कानूनी तौर पर गैर जायज ठहराया । महिला कार्यकर्ताओं ने इस कानून की आलोचना की है, क्योंकि इसमें ये प्रावधान है कि जो महिलायें इस प्रक्रिया को अपनायें उन्हें दंडित किया जाये । मुमकिन है कि इन महिलाओं पर बच्चा जन्मने के लिये दबाव रहता हो ।

महिलायें शक्तिहीन हैं:

पितृसत्तात्मक परम्पराओं के चलते महिलाओं के अधिकारों के निमित्त जो कानूनी सुरक्षा मुहय्या करायी गई है, वह कारगर नहीं है ।

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